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१९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
और यह इसका कारण है यह व्यवहार तो दोनों हेतुओंपर समानरूपसे लागू होता है । मात्र बाह्य हेतु और कार्य इनमें निमित्त-नमित्तक भाव जहाँ असद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है वहाँ निश्चय उपादान और कार्य इनके मध्य निमित्त-नैमित्तक भाव सद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है।
शंका-जब कार्यके साथ निश्चय उपादानका सम्बन्ध सद्भुत व्यवहारनयसे घटित किया जाता है तो उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण क्यों दिया गया है ?
__समाधान-यतः प्रत्येक निश्चय उपादानमें प्रत्येक कार्यके प्रति स्वरूपसे हेतुता विद्यमान है, अतः उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण दिया गया है। ४. व्यवहाराभासियोंका कथन
___ यह वस्तुस्थिति है । इसके ऐसा होते हुए भी अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवको प्रमाण मानकर तथा साथ ही आगमकी दुहाई देते हुए एक ऐसे नये मतका बुद्धिपूर्वक प्रचार किया जा रहा है कि अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य अनेक शक्तिसम्पन्न होता है, इसलिये कब कौन कार्य हो यह बाह्य सामग्रीपर अवलम्बित है और उसका कोई नियम नहीं कि कब कैसी बाह्य सामग्री मिलेगी, इसलिये जब जैसी सामग्री मिलती है, कार्य उसके अनुसार होता है, अतः कार्यका नियामक बाह्य निमित्त ही होता है, उक्त उपादान नहीं । इसके साथ ही बुद्धि पूर्वक एक ऐसे मतका भी प्रचार किया जा रहा है कि प्रत्येक द्रव्यको शुद्ध पर्याय तो नियत क्रमसे ही होती है, किन्तु अशुद्ध पर्यायके सम्बन्धमें ऐसा कोई नियम नहीं है। वे नियत क्रमसे भी होती है और नियत क्रमको छोड़कर आगे-पीछे भी होती है ।
इस विषयको और स्पष्ट करते हुए उनका कहना है कि जब कि आगममें उदासीन बाह्य निमित्त और प्रेरक बाह्य निमित्तोंका पृथक्-पृथक् उल्लेख दृष्टिगोचर होता है तो दोनोंको एक कोटिमें बिठलाना ठीक नहीं है । हमारा यह कहना नहीं कि जो-जो क्रियावान् पदार्थ हैं वे सब प्रेरक निमित्त हो होते हैं। उदाहरणार्थ चक्षु इन्द्रिय क्रियावान् पदार्थ होकर भी रूपोपलब्धिमें प्रेरक बाह्य निमित्त नहीं है। वह उसी प्रकारसे रूपोपलब्धिमें व्यवहार हेतु है जैसे गति करते हुए जीवों और पुद्गलोंकी गति क्रियामें धर्मद्रव्य या ठहरते हुए जीवों और पुद्गलोंके स्थित होने में अधर्म द्रव्य व्यवहार हेतु हैं। इष्टोपदेशमें 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' यह कथन ऐसे ही क्रियावान् पदार्थोकी व्यवहार हेतुताको धर्म द्रव्यके समान बतलाने के लिए किया गया है।
किन्तु इनके सिवाय आगममें ऐसे उद्धरण भी दृष्टिगोचर होते हैं जिनके आधारसे उदासीन व्यवहार हेतुओंसे अतिरिक्त प्रेरक व्यवहार हेतुओंकी स्वतंत्र रूपसे सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ सर्वार्थसिद्धि में द्रव्य वचन पौद्गलिक क्यों है इसकी पुष्टिमें बतलाया गया है कि भाव वचनरूप सामर्थ्यसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेर्यमाण पुद्गल द्रव्य वचनरूपसे परिणमन करते हैं, इसीलिये द्रव्य वचन पौद्गलिक है। उल्लेख इस प्रकार है
तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणाः पुद्गलाः वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलकी। (अ० ५ सू० १९)।
तत्त्वार्थवार्तिकमें भी यह विवेचन इसी प्रकार किया गया है । इसके लिए देखो अ० ५, सू० १७ और १९ ।
इसी प्रकार पञ्चास्तिकाय (गाथा ८५ व ८८ जयसेनीया टीका) और बृहद्रव्यसंग्रह (गाथा १७ व २२ संस्कृत टीका) में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो उक्त कथनकी पुष्टिके लिये पर्याप्त हैं।
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