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२०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
व्यवहारके योग्य निश्चय चारित्रकी प्राप्ति हो जाती है, फिर भी यह जीव मोक्षको प्राप्त नहीं होता । यह एक प्रश्न है इसका समाधान करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं
क्षीणकषायप्रथमसमये तदाविर्भावप्रसक्तिरिति न वाच्या, कालविशेषस्य सहकारिकारणापेक्षस्य तदा विरहात् । -श्लो० वा० पृ. ७१ ।
शंका-क्षीणकषायके प्रथम समयमें मोक्षोत्पादका प्रसंग प्राप्त नहीं होता है ?
समाधान-ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि (व्यवहारनयसे) अपेक्षित काल विशेषका वहाँ अभाव है।
यह ऐसा उल्लेख है जिससे अनेक तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है। (१) नियत पर्यायका नियत काल ही व्यवहार हेतू होता है। (२) प्रत्येक द्रव्य नियत पर्यायकी स्थितिमें पहँचने पर ही वह विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान होता है। (३) सापेक्ष कथन व्यवहारनयका विषय है, इसलिए कालको सहकारी कारण कहना असद्भत व्यवहारनयसे ही घटित होता है। (४) निश्चयनय परनिक्षेप ही होता है। १०. शंका-समाधान
शंका-प्रकृतमें आप उपादानके पूर्व निश्चय विशेषण क्यों लगाते हैं ।
समाधान-प्रत्येक द्रव्यमें अपना-अपना कार्य करनेकी योग्यता होती है पर प्रत्येक द्रव्य पर्यायसे व्यतिरिक्त स्वतन्त्र नहीं पाया जाता और पर्याय काल द्रव्यके जितने समय होते हैं उतनी ही होती हैं, इसलिए निश्चयसे किस पर्यायके बाद अगले समयकी कौन पर्याय होगी इसका नियमन प्रत्येक समयकी पर्यायके आधार पर ही होता रहता है । व्यवहारसे काल द्रव्यके विवक्षित समयके आधार पर भी उसका परिगमन किया जा सकता है । अतः १२ वें गुणस्थानके प्रथम समयसे चारित्र एक प्रकारका होनेसे यहाँ कालकी मुख्यतासे उक्त कथन किया गया है। यही कारण है कि प्रत्येक द्रव्यमें अपने-अपने कार्यरूप परिणमनेकी योग्यताके रहते हए भी कार्यकारण परम्परामें आयवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको ही परमार्थसे उपादान स्वीकार कर उससे नियत कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार की गई है । विवक्षित उपादानके पूर्व निश्चय विशेषण लगानेका यही कारण है।
शंका-योग्यता क्या वस्तु है ? समाधान-समाधान यह है
योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्तिः । कार्य हि कारणजनत्वशक्तिस्तस्याः प्रतिनियमः। शालिबीजांकुरयोः भिन्नकालत्वाविशेषेऽपि शालिबीजस्येति कथ्यते । - श्लो० वा० गा० ७८ ।
कारणकी कार्यको उत्पादन करनेकी शक्तिका नाम योग्यता है और कार्य कारणपूर्वक जन्यत्व-शक्तिवाला होता है । इसीका नाम योग्यताका प्रतिनियम है। जैसे शालि बीज और अंकुरमें भिन्न कालपनेरूप विशेष होने पर भी शालि-बीजमें ही शालि अंकुरके उत्पन्न करनेकी शक्ति है, यव बीजमें नहीं । वैसे ही य बीजमें ही यव-अंकुरको उत्पन्न करनेकी शक्ति है, शालि-बीजमें नहीं यह कहा जाता है।
प्रकृतमें शालि-बीजमें ही शालि-अंकुरके उत्पन्न करनेकी योग्यता होने पर भी कौन शालि बीज किस समय अपने अंकुरको जन्म दे इसका नियम है। भले ही निश्चय उपादान और उसके अंकुरमें समय भेद हो पर शालि-बीजके उस भमिकामें पहँचने पर उससे नियममें अंकूरकी उत्पत्ति होगी ही ऐसा प्रतिनियम है । यहाँ मिटी आदिका अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर कालप्रत्यासत्ति होनेसे सदभाव रहेगा ही इसमें सन्देह नहीं पर मिट्टी आदि व्यवहारसे निमित्तमात्र ही हैं, वे परमार्थसे अंकुरके उत्पन्न करनेकी क्षमता नहीं रखते यह भी सुनिश्चित है। इसी तथ्यका स्पष्टीकरण तत्त्वार्थवार्तिकमें इन शब्दोंमें किया है
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