________________
चतुर्थ खण्ड : २१३ भवितव्यका समर्थन करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशक (अधिकार ३, पृष्ठ ८१) में लिखते हैं
__.."सो इनकी सिद्धि होइ तौ कषाय उपशमने” दुःख दूरि होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके अधीन है। जातें अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है । बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसी हो होइ जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातै कार्यकी सिद्धि भी होइ जाइ तौ तिस कार्यसंबंधी कोई कषायका उपशम होइ।
यह पण्डितप्रवर टोडरमलजीका कथन है। मालूम पड़ता है कि उन्होंने 'तादृशी जायते बुद्धिः' इस श्लोकमें प्रतिपादित तथ्यको ध्यानमें रख कर ही यह कथन किया है। इसलिए इसे उक्त अर्थके समर्थनमें ही जानना चाहिए।
इस प्रकार कार्योत्पत्तिके पूरे कारणों पर दृष्टिपात करनेसे भी यही फलित होता है कि जहाँ पर कार्योत्पत्तिके अनुकूल द्रव्यका स्ववीर्य या स्वशक्ति और उपादान शक्ति होती है वहाँ अन्य सामग्री स्वयमेव मिल जाती है, उसे मिलाना नहीं पड़ता । यह मिलाना क्या है ? यह एक विकल्प है तथा तदनुकूल वचन और कायकी क्रिया है, इसीको मिलाना कहते हैं। इसके सिवाय मिलाना और कुछ नहीं ।
वास्तवमें देखा जाय तो यह कथन जैनदर्शनका हार्द प्रतीत होता है। जैनदर्शनमें कार्यकी उत्पत्तिके प्रति जो उपादान-निमित्त सामग्री स्वीकार की गयी है उसमें द्रव्यको स्वशक्तिके साथ उपादानका प्रमुख स्थान है। उसके अभावमें अन्य निमित्तोंकी कथा करना ही व्यर्थ है। स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें जब यह प्रतिपादन किया कि विविध प्रकारका कामादि कार्यरूप भावसंसार कर्मबन्धके अनुरूप होता है और वह कर्मबन्ध अपने कामादि बाह्य हेतुओंके निमित्तसे होता है तब उनके सामने यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि ऐसा मानने पर तो जीवके संसारका कभी भी अन्त नहीं होगा, क्योंकि कर्मबन्ध होनेके कारण यह जीव भावसंसारकी सृष्टि करता रहेगा और भावसंसारकी सृष्टि होनेसे निरन्तर कर्मबन्ध होता रहेगा। फिर इस परम्पराका अन्त कैसे होगा? आचार्य महाराजने स्वयं उठे हुए अपने इस प्रश्नके महत्त्वको अनुभव किया और उसके उत्तरस्वरूप उन्हें कहना पड़ा-'जीवास्ते शुद्धय द्धितः ।' अर्थात् वे जीवशुद्धि और अशुद्धि नामक दो शक्तियोंसे सम्बद्ध है । परन्तु इतना कहनेसे उक्त आपेक्षको ध्यानमें रखकर किये गये समाधान पर पूरा प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए वे इन शक्तियोंके आश्रयसे स्पष्टीकरण करते हुए पुनः कहते हैं
शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् ।
साद्यनादी तयोव्यक्ती स्वभावोऽतकंगोचरः ॥१००। पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्तिके समान शुद्धि और अशुद्धि नामवाली दो शक्तियाँ हैं तथा उनकी व्यक्ति सादि और अनादि है । उनका स्वभाव ही ऐसा है जो तर्कका विषय नहीं है ॥१०॥
यहाँ पर जो ये दो प्रकारकी शक्तियाँ कही गयी है उन द्वारा प्रकारान्तरसे उपादान शक्तिका ही प्रतिपादन कर दिया गया है। जीवोंमें ये दोनो प्रकारकी शक्तियाँ होती है । उनमेंसे अशुद्धि नामक शक्तिकी व्यक्ति तो अनादि कालसे प्रति समय होती आ रही है जिसके आश्रयसे नाना प्रकारके पुद्गल कर्मोका बन्ध होकर कामादिरूप भावसंसारकी सृष्टि होती है । जो अभव्य जीव हैं उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org