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२०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इत्यादि वचन इसी अभिप्रायको व्यक्त करनेके लिए दिया है यह तथ्य है। प्रकृतमें द्रव्यमोह पदसे सामान्य मोहनीय कर्मका ग्रहण किया है। पहले जो कुछ भी लिख आये हैं उसमें भी यही दृष्टि है।
इस प्रकार प्रत्येक कार्यके प्रति उपादान-उपादेय भावसे अन्तर्व्याप्तिका और निमित्त-नैमित्तिक भावसे बहिातिका समर्थन होने पर भी बहुतसे व्यवहारैकान्तवादी इन दोनोंके योगको स्वीकार न कर अपने ऐन्द्रियिक श्रुतज्ञानके बलपर वैभाविक कार्योंका अनियमसे सिद्ध होना बतलाते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायने जैसे सवस्त्र मुनिमार्गका समर्थन करनेके लिए वस्त्रको परिग्रहसे पृथक् कर दिया और उसकी पुष्टिमें स्त्रीमुक्तिको आगम कह कर स्त्रीलिंग, अन्य लिंग या गृहस्थ लिंगसे मुक्तिको स्वीकार कर लिया । लगभग ठीक यही स्थिति इन व्यवहारैकान्तवादियों की है। इन्हें मात्र सम्यक् नियति को भी एकान्त कह कर उसका खण्डन करना है । इसके लिए उन्होंने यह मार्ग चुना कि जितनी स्वभाव पर्यायें हैं वे तो क्रमसे अपने-अपने समयमें ही होती हैं । पर विभाव पर्यायोंके विषयमें यह नहीं कहा जा सकता । कौन पर्याय कब होगी इसका कोई नियम नहीं किया जा सकता। ९. उक्त एकान्त मतकी पुनः समीक्षा
किन्तु उनका यह कथन कैसे आगम विरुद्ध है इसकी हम संक्षेपमें कुछ आगम प्रमाण देकर पुनः समीक्षा करेंगे । स्वामी समन्तभद्रने सम्यक् देवकी परीक्षा प्रधान अपने आप्तमीमांसा ग्रन्थमें संसारी जीवोंके प्रत्येक कार्यकी अपेक्षा दैव और पुरुषार्थके युगपत् योगको गौण मुख्य भावसे कैसे स्वीकार किया है इस पर दृष्टिपात कीजिए
अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥९१।। अबुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिकी विवक्षामें प्रत्येक इष्ट और अनिष्ट अर्थका सम्पादन दैवके बलसे होता है तथा बुद्धिपूर्वक अर्थकी प्राप्तिकी विवक्षामें इष्ट और अनिष्ट प्रत्येक अर्थ पुरुषार्थके बलसे प्राप्त होता है ॥९ ॥
इसकी टीका करते हुए आचार्य अकलंकदेव तथा विद्यानन्द लिखते हैं
ततोऽतकितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूलं वा दैवकृतम् बुद्धिपूर्वापेक्षापायात्, तत्र पुरुषकारस्याप्रधानत्वात् दैवस्य प्राधान्यात् । तद्विपरीतं पौरुषापादितं, बुद्धिपूर्वाव्यपेक्षापायात्, तत्र देवस्य गुणत्वात् पौरुषस्य प्रधानत्वात् ।
इसलिये बिना कल्पना या विचारके अनुकूल या प्रतिकूल जो वस्तु प्राप्त होती है उसकी प्राप्ति देवसे होती है, क्योंकि बुद्धिपूर्वक वस्तु प्राप्तिकी अपेक्षा न होने से वहाँ पुरुषार्थ गौण है और दैव मुख्य है । उससे विपरीत अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्ति पुरुषार्थसे होती है, क्योंकि बुद्धि पूर्वक वस्तुकी प्राप्तिकी विवक्षाका अभाव नहीं होनेसे वहाँ दैव गौण है और पुरुषार्थ मुख्य है ।
यहाँ दैव और पुरुषार्थके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भट्टाकलंकदेव लिखते हैंयोग्यता कर्म पूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम् । पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् ।
वस्तुगत योग्यता और पूर्व कर्म दैव कहलाता है। ये दोनों इन्द्रियगम्य नहीं हैं, तथा ऐहिक मन, वचन और कायके व्यापारका नाम पुरुषार्थ है जो इन्द्रियगम्य है ।
यहाँ आचार्यदेवने तीन बातोंका निर्देश किया है, जिसे इष्ट या अनिष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है तद्गत योग्यता, तथा जिसे उक्त वस्तुकी प्राप्ति होती है उसका पुरुषार्थ और पूर्वमें सम्पादित किया गया कर्म साथ
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