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२१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला सरागसम्यक्त्व कहा जाता है । वही व्यवहार सम्यक्त्व है। इसके विषय छह द्रव्य हैं।
इतने विवेचनसे ये तथ्य फलित होते हैं
(१) निश्चय सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति ज्ञायक स्वरूप आत्माके उपयोगके विषय होनेपर तत्स्वरूप एकाकार परिणतिरूप स्वानुभवके कालमें ही होती है।
(२) ऐसी अवस्थाके प्रथम समयसे लेकर दर्शन मोहनीयकी यथासम्भव प्रकृतियोंके अन्तरकरण उपशम आदि तथा अनन्तानुबन्धीके उदयाभावरूप उपशम या विसंयोजनारूप क्षयमें व्यवहार हेतुता घटित होती है। यह व्यवहार हेतुता आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके काल तक सतत बनी रहती है।
(३) अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य उपादान और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्य कार्य यह क्रम भी सतत चलता रहता है। मात्र सम्यग्दर्शनके कालके भीतर ज्ञायक आत्मलक्षी परिणामकी ओर झुकावका विच्छेद कभी नहीं होता। इतनी विशेषता है कि सविकल्प दशामें उस ओरका झुकाव बना रहता है और निर्विकल्प दशामें उपयोग ज्ञायक स्वरूप आत्मासे एकाकार होकर उपयुक्त रहता है ।
(४) आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शनके वे प्रशमादिक व्यवहारसे स्वीकार किये गये हैं । इसीसे प्रशमादिक भाव उक्त सम्यग्दर्शनके व्यवहारसे निमित्त हैं। कारण कि इन द्वारा निश्चयसम्यग्दर्शनके अस्तित्व की सूचना मिलती है । एक अपेक्षा ये ज्ञापक निमित्त भी हैं।
(५) उक्त कथनसे ज्ञात होता है कि किन्हीं सरागी जीवोंमें ज्ञान और वैराग्य शक्ति व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर होती है और किन्हीं में वह व्यक्तरूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ज्ञान और वैराग्य शक्तिका योग सब सम्यग्दृष्टियोंके होता ही है इतना अवश्य है।।
(६) आस्तिक्य सम्यग्ज्ञानका भेदविशेष है। इसलिए एक आत्मापनेकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अभेद करके अस्तिक्यभावको भी यहाँ सम्यग्दर्शन कहा गया है ।
__ आत्मविशुद्धिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन तो है, परन्तु चाहे यह जीव सरागी भले ही क्यों न हो, किसी किसीके उसका संवेग आदिरूप व्यवहार नहीं होता यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके उक्त उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है। इससे मालूम पड़ता है कि जीवकी प्रत्येक पर्यायका मूल कारण उपादानका होना पर्याप्त है। उसके साथ यदि पर वस्तुके प्रति ममकार और अहंकारके रूपमें उपयोग परिणाम रहता है तो संसारकी सृष्टि होती है और ज्ञायकस्वरूप आत्माको विषय कर उपयोग परिणाम होता है तो मोक्ष जानेके मार्गका द्वार खुलकर उसपर यह जीव चलने लगता है।
प्रत्येक पर्यायका कालविशेष व्यवहार निमित्त है ऐसा एकान्त नियम है । अन्य बाह्य संयोग बनो या न बनो । यदि बाह्य संयोग बनता है तो वह भी स्वकालमें ही बनता है। कभी भी किसी पदार्थका संयोग हो जाय ऐसा नहीं है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें यह वचन आया है
प्रत्यासन्नमुक्तीनामेव भव्यानां दर्शनमोहप्रतिपक्षः सम्पद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासन्निधानात् ॥११॥
जिनका मुक्ति प्राप्त करना अति सन्निकट है ऐसे भव्य जीवोंको ही दर्शनमोहके प्रतिपक्षका लाभ होता है, अन्य जीवोंको नहीं, क्योंकि कदाचित् अन्तरंग और बाह्य साधनोंका सन्निधान नहीं होता।
. ऐसा नियम है कि सभी कार्य बाह्य संयोगरूप निमित्तोंके अनुसार ही होते है ऐसा न होकर उनके होनेमें निश्चय उपादानरूप अन्तरंग कारण ही मुख्य है । यथा
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