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चतुर्थखण्ड : २०९
आगे तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनमें और प्रशमादिकमें अन्तरको स्पष्ट करते हुए लिखा हैननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्याः श्रद्धानमपि तत्त्वार्थानां किन्न स्वसंवेद्यम् यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वसंवेद्यत्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति कः श्रद्दधीतान्यत्र परीक्षकादिति चेत् ? नैतत्सारम् दर्शनमोहोपशमा दविशिष्टात्मस्वरूपस्य तत्त्वार्थश्रद्धानस्य स्वसंवेद्यत्वानिश्चयात् । स्वसंवेद्यं पुनरास्तिक्यं तदभिव्यंजकं प्रशम-संवेगानुकम्पावत् कथंचित्ततो भिन्नम्, तत्फलत्वात् । तत एव फलतद्वतोरभेदविवक्षायामास्थिक्यमेव तत्त्वार्थश्रद्धानमिति, तस्य तद्वत्प्रत्यक्ष सिद्धत्वात्तदनुमेयत्वमपि न विरुद्धयते । मतान्तरापेक्षया च स्वसंविदतेऽपि तत्त्वार्थश्रद्धाने विप्रतिपत्तिसद्भावात् तन्निकरणाय तत्र प्रशमादिलिंगादनुमाने दोषाभावः सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शनमिति हि चिद्विप्रवदन्ते तान् प्रति ज्ञानात् भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते ||८६||
शंका - प्रशमादिक यदि स्वयंमें स्वसंवेद्य हैं तो जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान स्वसंवेद्य क्यों नहीं है, जिससे कि प्रशमादिकसे पदार्थोंके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अनुमान किया जाता है, क्योंकि स्वसंवेद्यपनेकी अपेक्षा भेद न होनेपर भी प्रशमादिकके द्वारा तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अनुमान किया जाता है, परन्तु तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके द्वारा प्रशमादिकका अनुमान नहीं किया जाता, परीक्षकको छोड़कर और कौन ऐसा श्रद्धान करेगा ?
समाधान -- यह कहना सारभूत नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहादिके उपशमादियुक्त आत्मश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनके स्वर वैद्य पनेका निश्चय नहीं होता । परन्तु आस्तिक्य स्वसंवेद्य है जो प्रशम, संवेग और अनुकम्पा - के समान तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका अभिव्यंजक है, इसलिए तत्त्वार्थं श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनसे कथंचित् भिन्न है, क्योंकि वह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शनका फल है । इसलिए फल और फलवान् में कथंचित् अभेद विवक्षा में आस्तिक्य ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है । यतः सम्यग्दर्शन आस्तिक्य के कारण प्रत्यक्षसिद्ध होनेसे सम्यग्दर्शनको अनुमानका विषय माननेमें भी कोई विरोध नहीं है ।
दूसरे मतकी अपेक्षा तो यद्यपि तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन स्वसंवेद्य है ऐसा होनेपर भी विवादका सद्भाव होनेसे उसका निराकरण करनेके लिए सम्यग्दर्शनका प्रशमादिकके द्वारा अनुमान किया जाता है ऐसा माननेमें कोई विरोध नहीं है ।
कितने ही व्यक्ति सम्यग्ज्ञान ही सम्यग्दर्शन है ऐसा विवाद करते हैं उनके प्रति सम्यग्ज्ञानसे सम्यग्दर्शन में भेद है इस बातको सम्यग्दर्शन के कार्यरूप प्रशमादिकके द्वारा प्रकट की जाती है ।
यद्यपि सरागियों में सम्यग्दर्शनके कार्यरूप प्रशमादिक तो होते हैं परन्तु वीतरागियों में कायादिकके व्यापार विशेषके अभाव में वे नहीं दृष्टिगोचर होते हैं ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैंसर्वेषु सरागेषु सद्दर्शनं प्रशमादिभिरनुमीयते इत्यनभिधानात् । यथासम्भवसरागेषु वीतरागेषु च सद्दर्शनस्य तदनुमेयत्वमात्मविशुद्धिमात्रत्वं चेत्यभिहितत्वात् ।
समस्त सम्यग्दृष्टियोंमें सम्यग्दर्शन प्रशमादिकके द्वारा अनुमित होता है ऐसा हमने नहीं कहा है । किन्तु यथासम्भव सराग और वीतराग जीवोंमें सम्यग्दर्शन प्रशमादिक के द्वारा अनुमित होता है और वह आत्मविशुद्धिमात्र है ऐसा हमने कहा है ।
परमात्मप्रकाश टीका में सराग सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन एक ही हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-
प्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यववं भण्यते, तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति । तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्यणीति । पृ० १४३ |
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