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चतुर्थ खण्ड : २०१
समाधान - प्रश्न महत्त्वका है इसपर सांगोपांग विचार तो कर्ताकर्म मीमांसा अधिकारमें ही करेंगे, फिर भी सामान्यसे उसपर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । प्रश्न यह है कि जो बाह्य निमित्त है वह अन्य द्रव्यके कार्य कालमें स्वयं अपनो परिणामलक्षण या उसके साथ परिस्पन्दलक्षण क्रिया करता है या अन्यकी क्रिया करता है ? यदि स्वयं अपनी ही क्रिया करता है तो अन्यके कार्य में वह सहायक किस प्रकार होता है ? जब कि वह स्वयं अपनी ही क्रिया में व्याप्त रहता है तो वह अन्य द्रव्यकी क्रिया जब कर ही नहीं सकता तब वह अन्य द्रव्यके कार्य में वास्तवमें सहायक ही कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता यही निश्चित होता है | और यदि अपनी उक्त दोनों प्रकारकी क्रियाओंको छोड़कर अन्य द्रव्यके कार्य में व्याप्त रहता है तो वह स्वयं अपरिणामी हो जाता है । इन दोनों प्रकारकी आपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र यही उपाय है और वह यह कि परमार्थसे न तो एक द्रव्य अपने कार्यको छोड़कर अन्य द्रव्यके कार्यमें निमित्त ही होता है और न ही वह उस कार्य के होनेमें परमार्थसे कुछ सहायता ही करता है । मात्र अन्वयव्यतिरेकके आधारपर काल प्रत्यासत्तिवश यह व्यवहार किया जाता है कि इसने इसका कार्य किया या यह इसके कार्य में सहायक है । सच पूछा जाय तो निमित्तवाद जहाँ अन्य निमित्तवादी दर्शनोंका अन्तरात्मा है वहाँ जैनदर्शनमें वह बाह्य कलेवरमात्र है । इसी तथ्यको आचार्य पूज्यपादने भी सर्वार्थसिद्धि में व्रतोंको लक्ष्य कर स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है । वे लिखते हैं
तत्र अहिंसाव्रतमादौ क्रियते, प्रधानत्वात् । सत्यादीनि हि तत्परिपालनार्थानि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत् । - अ० ६, सू० १ ।
यहाँ पाँच व्रतोंमें अहिंसा व्रतको आदिमें रखा है, क्योंकि वह सब व्रतोंमें मुख्य है । धान्यके खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर बाड़ी होती है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत अहिंसाके परिपालनके लिए हैं । देखो, यहाँ अहिंसा व्रतको खेतमें उपजी धान्यकी उपमा दी है और सत्यादिक चार व्रतोंको व्यवहार से उसकी सम्हाल के लिए बाड़ी बतलाया है । यह तो प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी जानता है कि प्रकृतमें अहिंसा और सत्यादिक दोनों आत्माके शुभ परिणाम है । इस प्रकार एक आत्मपनेकी अपेक्षा दोनोंमें अभेद होने पर भी आचार्यने भेद विवक्षा में अहिंसाको कार्य और सत्यादिकको उसके बने रहनेका व्यवहार हेतु (निमित्त ) कहा है । इसी प्रकार संवर स्वरूप व्रतोंमें और प्रशस्त राग स्वरूप व्रतोंमें क्या अन्तर है इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं
तेषु हि कृतपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेन उपदेशः क्रियते ।
- सर्वा० अ० ६, सू० १ । व्रतोंमें दृढ़प्रतिज्ञ हुआ साधु सुख पूर्वक संवर करता है, इसलिये यहाँ व्रतोंका संवररूप व्रतोंसे पृथक् उपदेश करते हैं 1
यही अभिप्राय आचार्य अकलंक देवने तत्त्वार्थवार्तिकमें भी व्यक्त किया है । आचार्य विद्यानन्द तो व्रतोंको संवरसे पृथक् बतलाते हुए लिखते हैं-
न संवरो व्रतानि परिस्पन्ददर्शनात् गुप्त्यादिसंवरपरिकर्मत्वाच्च । - त० श्लो० अ० ६. सू० १ । व्रत संवरस्वरूप नहीं हैं, क्योंकि व्रतोंमें मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति देखी जाती है तथा वे मन, वचन और कायकी निवृत्तिरूप गुप्ति आदि संवरके परिकर्मस्वरूप हैं ।
इन आचार्योंका यह ऐसा कथन
जिससे बाह्य निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है । इस कथन से एक बात तो यह स्पष्ट हो जाती है कि पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी व्यक्ति या जीवनमें
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