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चतुर्थ खण्ड : १९९
हो जाते हैं । यतः इस दर्शनमें कर्ताके लक्षण में ज्ञान, क्रिया और चिकीर्षाको समाहित किया गया है, इसलिए जड़ और चेतन सम्बन्धी सभी कार्य में उसकी प्रधानता हो जाती है। इस दर्शनमें निमित्तोंके उक्त प्रकारसे भेद किये बिना भी उक्त प्रकारका विभाजन स्पष्ट प्रतीत होता है। संक्षेपमें यह नैयायिक दर्शनका कथन है। वैशेषिक दर्शनकी मान्यता भी इसी प्रकार की है।
बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन होनेके साथ वह क्षणिणवादपर आधृत है । वह अन्वयी द्रव्यको स्वीकार नहीं करता । फिर भी ज्ञानकी उत्पत्तिके समनन्तर प्रत्यय, अधिपति प्रत्यय, आलम्बन प्रत्यय और सहकारी प्रत्यय ये चार कारण स्वीकार करनेके साथ उसने अन्य कार्योंके हेतु (मुख्य हेतु) और प्रत्यय (गौण) ये दो कारण स्वीकार किये हैं। यह असत्कार्यवादी दर्शन है फिर भी समनन्तर प्रत्ययके आधारपर यह उपादानउपादेय भावको स्वीकार करता हैं ।
अव्यवहित पूर्ववर्ती ज्ञानक्षण समनन्तर प्रत्यय है, इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय है, विषय आलम्बन प्रत्यय हैं तथा प्रकाश आदि अन्य सब कारण सहकारी प्रत्यय हैं। प्रत्येक समयके ज्ञानकी उत्पत्तिके ये चार कारण हैं।
अन्य कार्योंकी उत्पत्तिके दो कारण होते हैं। उनमेंसे बीज आदिको हेतु कहते हैं और प्रत्येक समयके कार्योंकी उत्पत्तिके भमि आदि अन्य कारणोंको प्रत्यय कहते हैं । किसीकी अपेक्षा करके ही कार्यकी उत्पत्ति होती है, इसलिए मूलत यह सापेक्षवादी दर्शन है । इसलिए इसका नाम प्रतीत्य समुत्पाद भी है।
सांख्य सत्यकार्यवादी दर्शन है . यह कारणमें कार्योंकी सर्वथा सत्ता स्वीकार कर उनका आविर्भाव तिरोभाव मानता है। उसका कहना है कि प्रत्येक कार्यके लिये पृथक्-पृथक् उपादानका ग्रहण होता है, सबसे सब कार्योंकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । आकाश कुसुम आदि असत्से कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, शक्यसे ही शक्य कार्यकी उत्पत्ति होती है और प्रत्येक कार्यका कारण अवश्य होता है। इससे विदित होता है कि नियत कारणसे ही नियत कार्यकी उत्पत्ति होती है। इस दर्शनने आविर्भाव और तिरोभाव मानकर भी उपादानसे भिन्न कारणोंपर जरा भी बल नहीं दिया है । इसकी मान्यता है कि मूल में प्रकृति और पुरुष दो ही तत्त्व हैं जो सर्वथा नित्य है । इसके बाद भी वह आविर्भाव और तिरोभावके आधारपर कार्य कारण भावको स्वीकार करता है । उसके मतसे सब कार्य जैसे हम देखते हैं उसी रूपमें पहलेसे ही विद्यमान है। मात्र वे अपने-अपने कालमें उजागर हो जाते हैं और अपने-अपने कालमें ओझल हो जाते हैं।
यह तीन दर्शनोंका मन्तव्य है। नैयायिक दर्शन कार्यमें कारणकी सत्ता न माननेके कारण कार्यकारणकी मुख्यतासे अन्य निमित्तवादी दर्शन है। ईश्वरकी कर्ताके रूपमें स्वतंत्र सत्ता भी उसने इसी कारण स्वीकार की है। मेघादि अजीव कार्योंका बनना-बिगडना, बरसना, बिजलीका उत्पन्न होना, चमकना आदि समस्त कार्य अन्य पुरुषकृत न होकर भी ईश्वराधिष्ठित होकर ही कार्यरूप परिणत होते हैं। ईश्वर सब कार्योका साधारण कारण है। उसके बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता।
बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी दर्शन है। यह कारणमें कार्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, इस दर्शनमें भी स्वभावसे कार्योंकी उत्पत्ति में अन्य निमित्तोंको मुख्यता मिल जाती है । क्षणिकवादी दर्शन होनेसे यह कार्योंकी उत्पत्ति अन्य निमित्त सव्यपेक्ष मानकर भी व्ययको सर्वथा निरपेक्ष मानता है। १. चत्वारः प्रत्ययाः हेतु: आलम्बनमनन्तरम् ।
तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ॥ -माध्यमिककारिका । २. अस्मिन् सति इदं भवति । हेतुप्रत्ययसापेक्षो भावनामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पाद ।
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