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चतुर्थ खण्ड : १९७ वे स्वभावसे संसारी जीवोंसे सम्बद्ध होने की पात्रता युक्त बनती हैं या संसारी जीव उन्हें अपने मोह राग, द्वेष आदिसे वैसा बना लेता है। साथ ही यह विभाग कौन करता है कि इतने परमाणुओंसे लेकर इतने परमाणओं तकके स्कन्ध आहारवर्गणा योग्य होंगे आदि तथा एक प्रकारकी वर्गणाओंसे दूसरे प्रकारकी वर्गणाओंके मध्य इतना अन्तर रहेगा। यदि कहो कि ये वर्गणाएँ स्वयं ही बनती और बिछड़ती रहती है तो संसारके सब कार्य स्वयंकृत मान लेनेमें आपत्ति ही क्या है। आगमका भी यही आशय है । आचार्य कुन्दकुन्ददेवने इसी स्वयंकृत नियमको ध्यानमें रखकर यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार सब स्कन्धोंकी उत्पत्ति परसे न होकर स्वयं होती है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्पत्ति भी स्वयंकृत जाननी चाहिये । इतने कथनसे यह भी फलित होता है कि संसारी जीव अपने रागादि परिणामोंको स्वयं करते है और एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ स्थित पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ स्वयं कर्मरूप परिणमती रहती है। इससे आगममें व्यवहार और निश्चयनयकी अपेक्षा जो षट्कारक व्यवस्था बतलाई गई है उसका आशय भी भले प्रकार समझमें आ जाता है । साथ ही यह भी समझमें आ जाता है कि आचार्योंने व्यवहार कथनीको क्यों तो उपचरित बतल.या और निश्चय कथनीको क्यों परमार्थ स्वरूप बतलाया। प्रकृतमें जो जिसका न हो उसको व्यवहार प्रयोजन वश या व्यवहार हेतु वश उसका कहना व्यवहार है तथा जो जिसका हो उसको निश्चय प्रयोजन या निश्चय हेतुवश उसीका कहना निश्चय है। संसारी जीवोंके रागादिकी उत्पत्तिके मोहनीय आ व्यवहार हेतु है, अतः इन रागादिको नैमित्तिक कहना व्यवहार है तथा इन रागादिको स्वकालके प्राप्त होनेपर संसारी जीव स्वयं उत्पन्न करते हैं और उदयादिरूप पुद्गल कर्म उनके होने में स्वयं व्यवहार हेतु होते हैं, इतना विशेष है कि निश्चयनयका कथन पर निरपेक्ष होता है क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप है। किन्तु व्यवहार नयका कथन पर सापेक्ष होता है, क्योंकि वह वस्तुका स्वरूप नहीं है। अतः रागादिको संसारी जीवोंका स्वयंकृत कार्य कहना निश्चय है। और पर निमित्तक कहना व्यवहार है । आगमज्ञ उसीका नाम है जो
वहारको व्यवहारनयसे ही स्वीकारता है और निश्चयको निश्चयनयसे ही स्वीकारता है। किन्तु जो उक्त कथनको विपरीतरूपसे जानते या कहते हैं वे आगमज्ञ कहलानेके अधिकारी नहीं हैं। इस तथ्यका समर्थन समयसार गाथा ४१४ की आत्मख्याति टीकाके इस वचनसे भले प्रकार होता है
ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते ते समयसारमेव न संचेतयन्ते । य एव परमार्थ परमार्थबुद्धथा चेतयन्ते ते एव समयसारं चेतयन्ते ।
इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे अकेले समयसारको नहीं अनुभवते तथा जो मात्र परमार्थको परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे ही समयसारको अनुभवते हैं ।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार कथन व्यवहार स्वरूप ही है उसे वस्तु स्वरूप या वस्तुके कार्यका निश्चय कारण मानना आगविरुद्ध है। इसलिए बाह्य कारण सहायक है यह कहना भी व्यवहार अर्थात् उपचरित (कल्पना मात्र) हो जाता है।
यदि हम निमित्तपने की दृष्टिसे सविकल्प योगयुक्त अज्ञानी जीव और तदितर बाह्य कारणोंको देखते हैं तो उनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता है । केवल बाह्य-व्याप्तिके आधारपर कालप्रत्यासत्तिवश उक्त जीवोंमें कर्तापनेका तथा अन्यमें करणता आदिका व्यवहार किया जाता है। आचार्य अमृतचन्द्रने इस तथ्यको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे समयसार गाथा ८४ की आत्मख्याति टीकामें घटोत्पत्तिके प्रति कुम्भकारके योग और विकल्पको घट निर्माणकी क्रिया न कहकर उसे मिट्टीको उस क्रियाके प्रति अनुकूल कहा है जब कि प्रत्येक व तु स्वभावसे किसी के अनुकूल और प्रतिकूल होती नहीं। अनुकूल या प्रतिकूल कहना यह मात्र व्यवहार है । तात्पर्य यह हुआ कि मिट्टी स्वयं कर्ता होकर घटकी उत्पत्ति रूप क्रिया करती है और कुम्भकारका योग
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