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१९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
१. उदाहरणार्थ 'यः परिणमति स कर्ता' का सीधा अर्थ है - 'जो कार्य रूप परिणमन करता है ।' किन्तु व्यवहारसे जो प्रेरक निमित्त कहे जाते हैं, कार्योंका यथार्थ कर्तुत्व उनको प्राप्त हो जाय और बाह्य वस्तु जो प्रत्येक कार्यका व्यवहार कारण है उसका तद्भिन्न द्रव्यके कार्यके प्रति कार्यकारीपना सिद्ध हो जाय, इसलिए वे उक्त श्लोकांशका 'जिसमें परिणमन होता है' यह अर्थ करते हैं ।
२. दूसरा उदाहरण समयसार गाथा १०७ का है। इसमें 'आत्मा पुद्गल द्रव्यको परिणमाता है आदि व्यवहारनयका वक्तव्य है' यह कहा गया है। उसकी आत्मख्याति टीकामें आ० अमृतचन्द्र देवने ऐसे उपयोग परिणामको विकल्प बतलाकर इस विकल्पको उपचरित ही कहा है । यथा
यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणमयत्युत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः || २०७||
और व्याप्य-व्या|कभावका अभाव होनेपर भी प्राप्य विकार्य तथा निर्वर्त्यरूप जो पुद्गल द्रव्यस्वरूप है उसे आत्मा ग्रहण करता है परिणमाता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है इस प्रकारका जो विकल्प होता है वह वास्तवमें उपचार है ।
किन्तु व्यवहारभासी व्यक्ति बाह्य हेतुओंकी कार्यकारीपना सिद्ध करनेके अभिप्राय से उक्त सूत्रगाथाका यह अर्थ करते हैं कि आत्मा पुद्गलद्रव्यका उपादान रूपसे परिणमन करनेवाला नहीं होता आदि । यह उन महाशयों का कहना है । किन्तु यह कैसे ठीक नहीं है इसके लिए आगेके कथनपर दृष्टिपात कीजिये -- अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । अच्छंति कम्मभावं
अण्णागाहमवगाढा ||६५ ॥ - पं० काय |
आत्मा स्वभाव (मोहादि ) करता है और जीवके साथ एक क्षेत्रावगाहरूपसे वहाँ प्राप्त हुए पुद्गल स्वभावसे कर्मभावको प्राप्त होते हैं ।। ६५ ।।
इस गाथा द्वारा पुद्गलकार्य जीव द्वारा किये बिना ही जीव और पुद्गल अपना-अपना कार्य स्वयं कैसे करते हैं यह स्पष्ट किया गया है । इस पर पुद्गल कर्मरूप अपने कार्यको जीवको सहायता के बिना कैसे करता है यह शंका होने पर आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहि खंधणिप्पत्ती ।
अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ||६६ ||
जिस प्रकार पुद्गल द्रव्योंकी अनेक प्रकारसे स्कन्धोंकी उत्पत्ति परके द्वारा किये बिना होती हुई दिखलाई देती है उसी प्रकार कर्मोकी विविधता परके द्वारा नहीं की गई जानो ।। ६६ । ।
यहाँपर प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य अन्यके द्वारा नहीं किये जानेपर स्वयं प्रति समय अपने कार्योंका कर्ता कैसे है यह पुद्गल स्कन्धोंका उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है। पुद्गल स्कन्धोंके द्व्यणुकसे लेकर महस्कन्ध तक नाना भेद हैं । उनमेंमें शून्य वर्गणाओंको छोड़कर वे सब सत्स्वरूप हैं । उनमें ऐसी आहारवर्गणाएँ भी हैं जिनसे तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंकी संरचना होती है। मनोवर्गणाएँ भी हैं जिनसे विविध प्रकारके मनोंकी संरचना होती है । भाषावर्गणाएँ भी है जिनसे तत, वितत आदि ध्वनियोंको संरचना होती हैं । तैजसवर्गणाएँ भी हैं जिनसे निःसरण और अनि सरण स्वभाव तथा प्रशस्त और अप्रशस्त तेजस शरीरों की संरचना होती है । कार्मणवर्गणाएँ भी हैं जिनसे ज्ञानावरणादि विविध प्रकारके आठ कर्मोंकी संरचना होती हैं। ये पाँचों संसारी जीवोंसे सम्बद्ध होने योग्य वर्गणाएँ हैं । प्रश्न है कि इन्हें ऐसी कौन बनाता है और इनमेंसे आहारादि पाँच वर्गणाओं में संसारी जीवोंके साथ सम्बद्ध होने की पात्रता कौन पैदा करता है । क्या
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