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१६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ३. गृहस्थधर्म
मोक्ष-प्राप्तिका साक्षात् मार्ग मुनिधर्म ही है। किन्तु जो व्यक्ति मुनिधर्मको स्वीकार करनेमें असमर्थ होते हुए भी उसे जीवनव्रत बनानेमें अनुराग रखते हैं, वे गृहस्थ धर्मके अधिकारी माने गये हैं । मुनिधर्म उ-सर्ग मार्ग है और गृहस्थधर्म अपवाद मार्ग है । तात्पर्य यह है कि गृहस्थधर्मसे आंशिक आत्मशद्धि और स्वावलम्बन की शिक्षा मिलती है, इसलिए यह भी मोक्ष का मार्ग माना गया है। समीचीन श्रद्धा और उसका फल
__ जो मुनिधर्म या गृहस्थधर्मको स्वीकार करता है उसकी पाँच परमेष्ठी और जिनदेव द्वारा प्रतिपादित शास्त्रमें अवश्य श्रद्धा होती है । वह अन्य किसीको भोक्षप्राप्तिमें साधक नहीं मानता इसलिए आत्मशुद्धिकी दष्टिसे इनके सिवा अन्य किसीकी वन्दना और स्तुति आदि नहीं करता। तथा उन स्थानोंको आयतन भी नहीं मानता, जहाँ न तो मोक्षमार्गकी शिक्षा मिलती है और न मोक्षमार्गके उपयुक्त साधन ही उपलब्ध होते हैं । लौकिक प्रयोजनकी सिद्धिके लिए दूसरेका आदर-सत्कार करना अन्य बात है। वह जानता है कि शरीर मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिए शरीर, उसकी सुन्दरता और बलका अहंकार नहीं करता। धन, ऐश्वर्य, कुल और जाति ये या तो माता-पिताके निमित्तसे प्राप्त होते हैं या प्रयत्नसे प्राप्त होते हैं । ये आत्माका स्वरूप नहीं हो सकते, इसलिए इनका भी अहंकार नहीं करता । ज्ञान और तप ये समीचीन भी होते हैं और असमीचीन भी होते हैं । जिसे आत्मदृष्टि प्राप्त है, उसके ये समीचीन हो ही नहीं सकते, इसलिए इन्हें मोक्षमार्गका प्रयोजक जान इनका भी अहंकार नहीं करता। धर्म आत्माका निज रूप है यह वह जानता है, इसलिए अपनी खोयी हई उस निधिको प्राप्त करनेके लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है। पाँच अणुव्रत
इस प्रकार दृढ़ आस्थाके साथ सम्यग्दर्शनको स्वीकार करके वह अपनी शक्तिके अनुसार गृहस्थधर्मके प्रयोजक बारह व्रतोंको धारण करता है । बारह व्रत ये हैं-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त । हिंसा, असत्य, चोरी अब्रह्म और परिग्रहका वह एकदेश त्याग करता है, इसलिए उसके पाँच अणुव्रत होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह त्रस-हिंसासे तो विरत रहता ही है। बिना प्रयोजनके एकेन्द्रिय जीवोंका भी वध नहीं करता । ऐसा वचन नहीं बोलता जिससे दूसरोंकी हानि हो या बोलनेसे दूसरोंके सामने अप्रमाणित बनना पड़े। अन्यकी छोटी,बड़ी किसी वस्तुको उसको आज्ञाके बिना स्वीकार नहीं करता । अपनी स्त्रीके सिवा अन्य सब स्त्रियोंको माता, बहिन या पुत्रीके समान मानता है और आवश्यकतासे अधिक धनका संचय नहीं करता। तीन अणुव्रत
इन पाँच व्रतोंकी वृद्धिके लिए वह दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत-इन तीन गुणवतोंको भी धारण करता है। दिव्रतमें जीवन-भरके लिए और देशव्रतमें कुछ कालके लिए क्षेत्रकी मर्यादा की जाती है। गहस्थका पुत्र, स्त्री और धन-सम्पदासे निरन्तर सम्पर्क रहता है। इस कारण उसकी तृष्णामें वृद्धि होना सम्भव है। ये दोनों व्रत उसी तृष्णाको कम करनेके लिए या सीमित रखने के लिए स्वीकार किये जाते हैं। प्रथम व्रतको स्वीकार करते समय वह इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन-भर अपने व्यापार आदि प्रयोजनकी सिद्धि इस क्षेत्रके भीतर रहकर ही करूँगा। इसके बाहर होनेवाले व्यापार आदिसे या उसके निमित्तसे होनेवाले लाभसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। समय-समयपर यथानियम दूसरे व्रतको स्वीकार करते समय वह अपने इस क्षेत्रको और भी सीमित करता है और इस प्रकार अपनी तृष्णापर उत्तरोत्तर नियन्त्रण स्थापित करता जाता है। इतना ही नहीं वह आजीविकामें और अपने आचार-व्यवहारमें उन्हीं साधनोंका
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