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कार्य-कारणभाव-मीमांसा
जीवन-संशोधनमें तत्त्वनिष्ठाका जितना महत्त्व है, कर्ता-कर्म-मीमांसाका उससे कम महत्त्व नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्दने भूतार्थरूपसे अवस्थित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहकर जीवा-जोवाधिकारके बाद कर्तकर्मअधिकार लिखा है, उसका कारण यही है। तथा आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धिमें 'सदसतोः' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हए मिथ्यादृष्टिके स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यासके समान कारणविपर्यास होता है यह उल्लेख इसी अभिप्रायसे किया है।
यह तो मानी हुई बात है कि विश्वमें जितने भी दर्शन प्रचलित है उन सबने तत्त्वव्यवस्थाके साथ कार्यकारणका जो क्रम स्वीकार किया है, उसमें पर्याप्त मतभेद है। प्रकृतमें प्रत्येक दर्शनके आधारसे उनकी मीमांसा नहीं करनी है । यहाँ तो मात्र जैनदर्शनके आधारसे विचार करना है। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यका लक्षण सत करके उसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वभाव बतलाया गया है । गण अन्वयस्वभाव होनेसे ध्रौव्यके अविनाभावी हैं और पर्याय व्यक्तिरेकस्वभाव होनेसे उत्पाद और व्ययके अविनाभावी हैं, इसलिए प्रकारान्तरसे वहाँपर द्रव्यको गुण-पर्यायवाला भी कहा गया है। चाहे द्रव्यको गुण-पर्यायवाला कहो और चाहे सत् अर्थात् उत्पादव्यय-ध्रौव्य स्वभाव कहो, दोनों कथनोंका अभिप्राय एक ही है।
यों तो अपने-अपने विशेष लक्षणके अनुसार जातिकी अपेक्षा सब द्रव्य छह हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । उसमें भी जीवद्रव्य अनन्तानन्त हैं, पुद्गलद्रव्य उनसे भी अनन्तगुणे हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक है तथा कालद्रव्य असंख्यात है। फिर भी द्रव्यके इन सब भेद-प्रभेदोंमें द्रव्यका पूर्वोक्त एक लक्षण घटित हो जानेसे वे सब एक द्रव्य शब्द द्वारा अभिहित किये जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि लोकमें अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताको लिए हुए चेतन और जड़ जितने भी पदार्थ है वे सब अन्वयरूप शक्तिको अपेक्षा ध्रौव्यस्वभाववाले होकर भी पर्यायकी अपेक्षा प्रति समय स्वयं उत्पन्न होते हैं और स्वयं विनाशको प्राप्त होते हैं । कर्मने जीवको बाँधा है या जीव स्वयं कर्मसे बन्धको प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार कर्म जीवको क्रोधाधिरूपसे परिणमाता है या जीव स्वयं क्रोधादिरूपसे परिणमन करता है । इन दोनों पक्षोंमें कौन-सा पक्ष जैनधर्म में तत्त्वरूपसे ग्राह्य है, इस विषयकी आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राभूतमें स्वयं मीमांसा की है। उनका कहना है कि जीव द्रव्य यदि स्वयं कर्मसे नहीं बँधा है और स्वयं क्रोधादिरूपसे परिणमन नहीं करता है तो वह अपरिणामी ठहरता है और इस प्रकार उसके अपरिणामी हो जानेपर एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है दूसरे सांख्यमतका प्रसंग आता है। यह कहना कि जीव स्वयं तो अपरिणामी है, परन्तु उसे क्रोधादि भावरूपसे क्रोधादि कर्म परिणत करा देते हैं उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जीवको स्वयं परिणमन स्वभाववाला नहीं माननेपर क्रोधादि कर्म उसे क्रोधादि भावरूपसे कैसे परिणमा सकते हैं ? अर्थात् नहीं परिणमा सकते । यदि इस दोषका परिहार करनेके लिए जीवको स्वयं परिणमनशील माना जाता है तो क्रोधादि कर्म जीवको क्रोधादि भावरूपसे परिणमाते हैं, यह कहना तो मिथ्या ठहरता ही है । साथ ही इस परसे यही फलित होता है कि जब यह जीव स्वयं क्रोधरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं क्रोध है, जब स्वयं मानरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं मान है, जब स्वयं मायारूपसे परिणमन करता है तब
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