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१८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
विवेचन करते हुए आचार्य विद्यानन्दने अपनी प्रसिद्ध अष्टसहस्री टीकामें जो कुछ भी लिखा है यह उन्हीं के शब्दोंमें पढ़िये
__ ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभावस्तावान् कार्यस्योपादानपरिणाम एव पूर्वानन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्य सद्भावप्रसंगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । 'कायोत्पादः क्षयो हेतोः' इति वक्ष्यमाणत्वात् । प्रागभावतत्प्रागभावादेस्तु पूर्व-पूर्वपरिणामस्य सन्तत्यनादेविवक्षितकार्यरूपत्वाभावात् ।।
यथार्थमें ऋजसत्रनयकी मख्यतासे तो अव्यवहित पर्ववर्ती उपादान परिणाम ही कार्यका प्रागभाव है। और प्रागभावके इस रूपसे स्वीकार करनेपर पूर्वकी अनादि परिणाम सन्ततिमें कार्यके सद्भावका प्रसंग नहीं आता है, क्योंकि प्रागभावके विनाशमें कार्य रूपता स्वीकार की गई है। 'कार्यका उत्पाद ही क्षय है, क्योंकि इन दोनोंका हेतु एक है' ऐसा आगे शास्त्रकार स्वयं कहनेवाले हैं। प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस रूपसे पूर्वतत्पूर्व परिणामरूप सन्ततिके अनादि रूपसे विवक्षित होनेके कारण उसमें विवक्षित कार्यपनेका अभाव है। -]० १००।
इससे एक तो यह निश्चित हो जाता है कि अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य नियत कार्यका ही उपादान होता है । दूसरे उक्त कथनसे यह भी निश्चित हो जाता है कि इससे पूर्व क्रमसे वस्तु जिस रूपमें अवस्थित रहती आई है वह पूर्वोक्त नियत कार्यका व्यवहार उपादान कहलाता है । यह व्यवहार उपादान इसलिये कहलाता है, कारण कि उसमें उक्त नियत कार्यके प्रति ऋजुसूत्रनयमे कारणता नहीं बनती। यतः वह केवल द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उपादान कहा गया हैं, इसलिये उसकी व्यवहार उपादान संज्ञा है।
शंका-पूर्व में प्रागभावका लक्षण कहते समय मात्र नियत कार्यसे अव्यवहित पूर्व पर्यायको ही ऋजुसूत्रनयसे उपादान कहा गया है, इसलिये उस कथनको भी एकान्त क्यों न माना जाय ?
समाधान-उक्त कथन द्वारा द्रव्याथिकनयके विषयभूत द्रव्यकी अविवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा गया है, इसलिये कोई दोष नहीं है। यदि दोनों नयोंकी विवक्षा करके प्रागभावका लक्षण कहा जाय तो अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको प्रागभाव कहेंगे । इस प्रकार समस्त कथन युक्ति युक्त बन जाता है।
शंका-यदि ऐसा है तो व्यबहार हेतुके कथनके समय उसे कल्पना स्वरूप क्यों कहा जाता है । श्री जयधवला (पृ० २६३) में इस विषयके कथनको स्पष्ट करते हुए आचार्य वीरसेनने यह कहा है कि प्रागभाव का अभाव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सापेक्ष होता है ? यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव कल्पनाके विषय हैं तो फिर प्रागभावके अभावको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सापेक्ष नहीं कहना चाहिये था। क्या हमारी इस शंकाका आपके पास कोई समाधान है ?
समाधान-हमने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको कहीं भी काल्पनिक नहीं कहा है, वे इतने ही यथार्थ हैं जितना कि प्रकृत वस्तु स्वरूप। हमारा तो कहना यह है कि प्रत्येक कार्यमें पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अन्वय-व्यतिरेकके आधारपर काल प्रत्यासत्तिवश निमित्त कहना यह मात्र विकल्पका विषय है और इसलिये उपचरित है। आगममें जहाँ भी यह कहा गया है कि है, इसने इसे परिणमाया है, इसने इसका उपकार किया है, यह इसका सहायक है यह सब कथन असद्भूत व्यवहारनयका वक्तव्य है। इस नयका आशय भी यह है कि यह नय प्रयोजनवश अन्यके कार्य आदिको अन्यका कहता है।
यह तो सुनिश्चित है कि प्रत्येक वस्तु और उसके गुण-धर्म परमार्थसे पर निरपेक्ष होते हैं, स्वरूप पर सापेक्ष नहीं हुआ करता । वस्तुका नित्य होना यह जैसे वस्तुका स्वरूप है उसी प्रकार उसका परिणमन करना
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