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चतुर्थ खण्ड : १९१
जिसे यहाँ स्वानुभूति, शुद्धोपयोग या ध्यान कहा है उसीका दूसरा नाम स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम भी है, स्वाश्रित निश्चयनय भी यही है । पराश्रित परिणाम इससे भिन्न है जिसे आगममें परद्रव्य-प्रवृत्त परिणाम भी कहते हैं, जो अज्ञानका दूसरा नाम है। समयसार गाथा २ में जो स्वसमय और परसमयका स्वरूप निर्देश किया गया है वह भी उक्त तथ्यको ध्यानमें रखकर ही किया गया है ।
_शंका-सम्यग्दृष्टि और तत्पूर्वक र तीके सविकल्प भूमिकामें जो रागपूर्वक कार्य देखे जाते हैं सो उस समय उनके वे परिणाम परद्रव्यप्रवृत्त माने जायँ या नहीं ?
समाधान-सम्यग्दष्टि या तत्पूर्वक व्रतीके राग परिणति तथा मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति मात्र ज्ञेय है, वह उनका कर्ता नहीं, क्योंकि ज्ञानी के बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहका अभाव होनेसे जो उसके राग पूर्वक प्रवृत्ति देखी जाती है या कर्मबन्ध होता है वह अबुद्धिपूर्वक रागादि कलंकका सद्भाव होनेसे ही होता है।
इस प्रकार इस समग्र कथनका सार यह है कि जो अपने स्वसहाय होनेसे अनादि-अनन्त, नित्य उद्योतरूप और विशद-ज्योति ज्ञायक भावके सन्मुख होता है उसके मोक्षमार्गके सन्मुख होने पर उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है और जो अपने उक्त स्वभावभूत ज्ञायक भावको भूलकर संसार मार्गका अनुसरण करता है उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है । ऐसी सहज वस्तु व्यवस्था है जिसे बाह्य सामग्री अन्यथा करने में समर्थ नहीं है। इतना विशेष है कि जो जीव मोक्षमार्गके सन्मुख होता है उससे निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका योग स्वयं मिलता है, बुद्धिका व्यापार उसमें प्रयोजनीय नहीं और जो जीव संसार मार्गके सन्मुख होता है उसके निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका कभी अबुद्धिपूर्वक योग मिलता है और कभी बुद्धिपर्वक योग मिलता है । ऐसा ही अनादि कालसे चला आ रहा नियम है।
अभी तक बाह्य कारण और निश्चय उपादानकी क्रमसे मीमांसा की। अब आगमानुसार यह स्पष्ट किया जायगा कि जड़-चेतनके प्रत्येक कार्यमें इन दोनों उपाधियोंका योग सहज ही मिलता रहता है । जिसे अज्ञानीके योग और विकल्परूप प्रयोग निमित्त कहा गया है उसका योग भी अपने कालमें सहज ही होता है। मात्र उस कालमें उसके बुद्धि और प्रयत्नपूर्वक होनसे उसकी स्वीकृतिको ध्यानमें रखकर उसे प्रायोगिक कहा गया है । इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शन आदि स्वभाव परिणत जीवोंके संसार अवस्थामें जितने भी विभाव कार्य होते हैं वे सब अबुद्धिपूर्वक विस्रसा ही स्वीकार किये गये हैं। कारण कि उनमें इस जीवके स्वपनेका भाव नहीं होता। उनका मात्र वह ज्ञाता द्रष्टा ही होता है। समयसार आत्मख्याति टीकामें इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए लिखा है
यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकराग-द्वेष-मोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव, किन्तु सोऽपि यावत् ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितं वाशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति जानात्यनुचरति तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वक कलंकविपाकसद्भावात् पुद्गलकर्मबन्धः स्यात् ।
___ जो परमार्थसे ज्ञानी है उसके बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहरूप आस्रव भावोंका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही है। इतना विशेष है कि वह जब तक ज्ञानको सर्वोत्कृष्टरूपसे देखने, जानने और आचरनेमें अशक्त होता हुआ जघन्य भावसे ही ज्ञान को देखता, जानता और आचरता है तब तक उसके भी जघन्य भाव की अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती, इससे अनुमान होता है कि उसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक रूप विपाकका सद्भाव होनेसे पुद्गल कर्मका बन्ध होता है।
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