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१९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
शंका--जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबुद्धिपूर्वक राग होता है उसे भी मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहना चाहिये ?
समाधान--जीवकी निर्विकल्प अवस्थामें जो अबुद्धि पूर्वक राग होता है वह शुभोपयोगकी जातिका ही होता है, इसलिये उसे भी परम्परा व्यवहारसे मोक्षका कारण कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
शंका--कतिपय शास्त्रोंमें यह भी उल्लेख मिलता है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव व्रतादिका आचरण कर स्वर्ग जाता है और वहाँसे चय हो मनुष्य जन्म पा अन्तमें मोक्षका अधिकारी बनता है और इस दृष्टिसे शुभोपयोग मोक्षका परम्परा कारण है ऐसा माना जाय तो क्या आपत्ति है ?
समाधान--यहाँ भी पिछले मनुष्य जन्मके रत्नत्रयसे लेकर मोक्ष प्राप्त होने तक का रत्नत्रय एक ही है, मात्र इस दृष्टिको सामने रखकर ही उसके साथ बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक वर्तनेवाले शुभरागको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहा जा सकता है।
वास्तवमें देखा जाय तो शुभोपयोगके कालमें जो सम्यग्दर्शनादि रूप स्वभाव पर्याय होती हैं या अबुद्धिपूर्वक प्रशस्त रागके कालमें जो स्वानुभूति और शुभोपयोग होता है उस शुभोपयोग और अबुद्धि पूर्वक प्रशस्त रागको ही स्वभाव परिणतिका व्यवहारसे निमित्त कहा गया है. क्योंकि ज्ञानधारा जब तक सम्यक रूपसे परि. पाकको प्राप्त नहीं होती है तभी तक ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ होनेको आगम स्वीकार करता है। इन सब दृष्टियोंको ध्यानमें रखकर यह कलश काव्य द्रष्टव्य हैयावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा,
कर्म-ज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित क्षतिः । किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत् कर्मबन्धाय तत्,
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११०।। जब तक ज्ञानकी कर्मविरति भलीभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक ज्ञान और कर्मका एक साथ रहना आगम सम्मत है, इससे आत्माकी कोई क्षति नहीं होती अर्थात उस कालमें सम्यग्दर्शनादि परिणाम शुद्धिके अनुसार यथावत् बने रहते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि इस भूमिकामें भी आत्मामें अवशपने (पुरुषार्थकी हीनतावश) जो कर्म प्रकट होता है वह तो बन्धका कारण है और स्वतः विमुक्त स्वभावमात्र जो परम ज्ञान है वह मोक्षका कारण है ॥११०॥
तात्पर्य यह है कि कर्मधारा स्वतः बन्धस्वरूप है, इसलिये वह बन्ध का हेतु है और ज्ञानधारा स्वयं मोक्षस्वरूप है, इसलिये वह मोक्षका हेतु है ।
शुद्ध आत्मस्वरूपमें अचलरूपसे जो चैतन्य परिणति होती है उसीका नाम ध्यान है, क्योंकि स्वानुभूति कहो, शुद्धोपयोग कहो या निश्चय ध्यान कहो इन तीनोंका एक ही अर्थ है। जीव के ऐसा ध्यान कब होता है इसका निर्देश करते हुए आचार्यदेव कुन्दकुन्द पंचास्तिकायमें कहते हैं--
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो य जोगपरिकम्मो।
तस्स सहासहडहणो झाणमओ जायए अगणी ॥१४६।। जिसके जीवनमें मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है तथा जिसका उपयोग राग, द्वेष और मन, वचन, कायरूप परिणतिको नहीं अनभव रहा है उसीके शुभाशुभ भावोंको दहन करने में समर्थ ध्यानरूपी अग्नि उदित होती है ॥१४६॥
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