________________
१८० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इसीका नाम सकलादेश है, क्योंकि द्रव्याथिक नयसे सभी धर्मो से अभेद त्ति घटित हो जानेसे अभेद है तथा पर्यायाथिक नयसे प्रत्येक धर्ममें स्वरूपकी अपेक्षा भेद होनेपर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है । स्याद्वाद इसीका नाम है । अब आग सप्तभंगी द्वारा इसे स्पष्ट किया जाता है।
प्रश्नके वश होकर एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विवि प्रतिषेध कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। यहाँ सप्तभंगी पद से स्पष्टतः जिन सात भंगोंका बोध होता है वे हैं-१. स्यात् है ही जीव, २. स्यात् नहीं ही है जीव, ३. स्यात् अवक्तव्य ही है जीव, ४. स्यात् है और नहीं ही है जीव, ५. स्यात् है और अवक्तव्य ही है जीव, ६. स्यात् नहीं है और अवक्तव्य ही है जीव, ७. स्यात् है, नहीं है और अवक्तव्य ही है जीव ।
प्रत्येक भंगमें 'जीव' पद द्रव्यवाची होनेसे विशेष्य है और 'अस्ति' धर्मवाची होनेसे विशेषण है । उनमें परस्पर विशेषण, विशेष्यभावके द्योतन करनेके लिए 'एव' पद का प्रयोग किया गया है। इससे अस्तित्व के अतिरिक्त इतर धर्मों की निवृत्तिका प्रसंग आनेपर उन धर्मो के सद्भावको द्योतन करनेके लिए उक्त वाक्यमें 'स्यात्' -कथंचित्' शब्दका प्रयोग किया गया है। यह 'स्यात्' पद तिङन्त प्रतिरूपक निपात है । यहाँ सप्तभंगीमें प्रत्येक भंगको 'स्यात्' पदसे युक्त करनेके दो प्रयोजन है। प्रथम प्रयोजनके अनुसार 'स्यात्' पद प्रत्येक भंगमें अनेकान्तका द्योतन करता है तथा दूसरे प्रयोजनके अनुसार प्रत्येक वाक्यमें जो गम्य अर्थ है उसका विशेषण होनेसे वह अपेक्षा विशेषको सूचित करता है। इससे हम जानते हैं कि प्रथम भंग ‘जीव है ही' यह अपेक्षा विशेषसे कहा गया है तथा दूसरे भंगमें 'जीव नहीं ही है यह भी अपेक्षा विशेषसे कहा गया है। इसी प्रकार शेष ५ भंगोंमें भी समझ लेना चाहिए । यहाँ इतना विशेष है कि सप्तभंगीके प्रत्येक भंगमें कथनकी अपेक्षा स्वतन्त्र एक-एक धर्म की मुख्यता है । किन्तु यहाँ अभिप्रायमें पूरी वस्तु विवक्षित है ।
१. सप्तभंगीके प्रथम भंगमें अस्तित्व धर्म द्वारा जीवकी सिद्धि की गई है। यह द्रव्याथिक वचन है, अतः समग्र वस्तुका परिग्रह करने के लिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों की अभेदवृत्ति स्वीकार कर ली गई है। इससे यह भंग सकलादेशी हो जाता है।
२. दूसरे भंगमें पर चतुष्टयके निषेध द्वारा पर्यायमुखेन जीवकी सिद्धि की गई है । यह पर्यायवचन है, अतः समग्र वस्तुका परिग्रह करनेके लिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों का अभेदोपचार कर लिया गया है । इससे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है ।
३. तीसरे भंगमें अर्थपर्यायोंकी मुख्यता है और अर्थपर्यायोंका वचनमुखेन कथन हो नहीं सकता, इसलिए इसमें वचन द्वारा उनके न कह सकने रूप सामर्थ्यकी अपेक्षा वस्तुको अवक्तव्य धर्म द्वारा अभिहित किया गया है ।। यह भी पर्यायवचन है, इसलिए स्यात् पद द्वारा अन्य धर्मो का अभेदोपचार करनेसे यह भग भी सकलादेशी हो जाता है।
४. चौथे भंगमें अर्थपर्यायभित व्यंजनपर्यायोंकी मुख्यता है। यह भी पर्यायाथिक वचन है । इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मों का अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है।
५. पांचवें भंगमें अवान्तर पर्यायसामान्य और उसमें गभित वचन द्वारा न कह सकने रूप विशेष पर्यायोंके समुच्चय रूप एक धर्मकी मुख्यता है। यह भी पर्यायवचन है, इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मोका अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है ।
६. छठे भंगमें पर्याय विशेष और उसमें गर्भित वचन द्वारा न कह सकने रूप अन्य पर्यायोंके समुच्चय रूप एक धर्मकी मुख्यता है, इसमें यह भी पर्यायवचन है, इसलिए 'स्यात्' पद द्वारा अन्य धर्मो का अभेदोपचार करनेसे यह भंग भी सकलादेशी हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org