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चतुर्थखण्ड : १७१
वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु- इनमें जो अनुराग करते हैं, उनका यह अनुराग प्रशस्त होता है। इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करनेसे सच को सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति रागपूर्वक मानी गयी है किन्तु यह निदान नहीं है। निदान सका होता है और भक्ति निष्काम यहीं इन दोनोंमें अन्तर है।
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विधि
वन्दना लिए जाते समय श्री जिनालयके दृष्टिपथमें आनेपर 'दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि' पाठ पढ़े। अनन्तर हाथ-पैर धोकर 'णिसही पिसही जिसही" ऐसा तीन बार उच्चारण करके जिनालय में प्रवेश करे । भगवान् जिनेन्द्रदेव के दर्शनसे पुलकित वदन और आत्मविभोर हो उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जावे । अनन्तर दोषविशुद्धि के लिए ईर्यापथशुद्धि करके यथाविधि सामायिकदण्डक, त्योस्सामिदण्डक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति पड़े । अन्तमें देववन्दना करते समय लगे दोषके परिमार्जन के लिए यथाविधि समाधिभक्ति पढ़कर देववन्दनाका कृतिकर्म सम्पन्न करे ।
इस कृतिकर्मको करते समय कहाँ बैठकर अष्टांग नमस्कार करे कहां खड़े-खड़े ही नमस्कार करे तथा कहाँ मन, वचन और कायको शुद्धिके सूचक तीन आवर्त करे आदि सब विधि विविध शास्त्रोंमें बतलायी गयी है। इस विधिको सूचित करनेवाला एक सूत्र षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वारमें भी आया है। उसके अनुसार कृतिकर्मके छह भेद होते हैं---उसका प्रथम विशेषण आत्माधीन है। कृतिकर्म पूरी स्वाधीनता के साथ करना चाहिए, क्योंकि पराधीन होकर किये गये कार्यसे इष्ट फलकी प्राप्ति नहीं होती। दूसरा विशेषण तीन प्रदक्षिणा देना है । गुरु जिन और जिनगृहकी वन्दना करते समय तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करना चाहिए । तीसरा विशेषण तीन बार करना है। प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रिया तीन-तीन बार करनी चाहिए। या एक दिनमें जिन गुरु और जिनगृह आादिकी वन्दना कमसे कम तीन बार करनी चाहिए यह इसका भाव है। चौथा विशेषण भूमिपर बैठकर तीन बार अष्टांग नमस्कार करना है। सर्वप्रथम हाथ-पैर धोकर शुद्ध मनसे जिन मन्दिरमें जाकर जिनदेवको बैठकर अष्टांग नमस्कार करे यह प्रथम नति है पुनः उठकर और जिनेन्द्रदेवकी प्रार्थना करके बैठकर अष्टांग नमस्कार करना यह दूसरी नति है पुनः उठकर सामायिकदण्डक आत्मशुद्धि करके तथा कषायके साथ शरीरका उत्सर्ग करके जिनेन्द्रदेवके अनन्त गुणोंका ध्यान करते हुए चौबीस तीर्थकर जिन जिनालय और गुरुओंकी स्तुति करके भूमिमें बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह तृतीय नवि है। इस प्रकार एक कृतिकर्ममें तीन अष्टांग नमस्कार होते हैं। पाँचवाँ विशेषण चार बार सिर नवाना है । सामायिकदण्डकके आदिमें और अन्तमें तथा त्योम्सामिदण्डक के आदिमें एक कृतिकर्ममें सब मिलाकर चार बार सिर झुकाकर नमस्कार किया जाता है। छठा विशेषण बारह आवर्त करना है । दोनों हाथोंको जोड़कर और कमल के समान मुकुलित करके दक्षिण भागसे प्रारम्भ करके वाम भागकी ओर ले जाकर और वाम भागसे पुनः दक्षिण भागकी ओर घुमाते हुए ले आना आवर्त है। इतनी विधि करने से एक आवर्त होता है। एक कृतिकर्म में ऐसे बारह आवर्त होते हैं। सामायिकदण्डके आदिमें और अन्तमें तथा स्वोस्त मिदण्डकके आदिमें और अन्तमें तीन-तीन आवर्त होते हैं, इसलिए इनका जोड़ बारह हो जाता है ।
और अन्तमें इस प्रकार
१. णिसही यह चैत्यालयका पर्यायनाम प्रतीत होता है । समेया समाजमें और इन्दौर आदि नगरोंमें इस शब्दका प्रयोग आज भी किया जाता है ।
२. 'तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्त' तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम ||२८||
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