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चतुर्थ खण्ड : १७५
जन्मकल्याणकके समय तो केवल जलसे अभिषेक किया जाता है। आगमिक परम्पराके अनुसार इसके ऐतिहासिक अनुसन्धानको आवश्यकता है । इससे तथ्योंपर बहुत कुछ प्रकाश पड़नेकी सम्भावना है । निष्कर्ष
देवपूजाके विषयोंमें इतना ऊहापोह करनेसे निष्कर्षके रूपमें हमारे मनपर जो छाप पड़ी है वह यह है कि वर्तमान पूजाविधिमें कृतिकर्मका जो आवश्यक अंश छूट गया है, यथास्थान उसे अवश्य ही सम्मिलित कर लेना चाहिए और प्रतिष्ठापाठके आधारसे इसमें जिस तत्त्वने प्रवेश कर लिया है उसका संशोधन कर देना चाहिए, क्योंकि पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाविधिमें और देवपूजामें प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे बहुत अन्तर है। वहाँ अप्रतिष्ठित प्रतिमाको प्रतिष्ठित करना यह प्रयोजन है और यहाँ प्रतिष्टित प्रतिमाको साक्षात् जिन मानकर उसकी जिनेन्द्रदेवके समान उपासना करना यह प्रयोजन है ।
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