________________
चतुर्थ खण्ड : १७७
मुलक (एकत्वमूलक) व्यवहार नहीं हो सकता।' वैसे ही द्रव्य उत्तराकारकी अवाप्ति और पूर्वाकारका परित्याग रूप उत्पाद, व्यय लक्षणवाला भी है। अन्यथा किसी भी व्यक्तिमें पिछली बार जब हमने आपको देखा था, उससे आज कितने अधिक बदल गये हो इत्याकारक व्यतिरेकमूलक व्यवहार नहीं हो सकता ।२
जिसे हमने यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप कहा है "सत्" यह उसका दूसरा नाम है। "सत्" कहो या "द्रव्य"-ये दो नहीं हैं एक ही है। यह प्रत्येक द्रव्यमें घटित हो ऐसा उसका सामान्य लक्षण है । इसीसे जैनदर्शनमें "अभाव" नामका स्वतन्त्र पदार्थ न होकर उसे भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है। स्वामी समन्तभद्रने इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कहा भी है-भवत्यभावो हि भावलक्षण:। हम कहते हैं कि इस भूतलपर घट नहीं है तो इसका अर्थ होता है कि यहाँ केवल भूतल है । घट यदि चाहिए ही तो अन्यत्र देखिये। वैसे अभावको चार प्रकारका माना गया है, सो वह विवक्षा भेदसे एक ही द्रव्यमें घटित हो जाता है। विवक्षित कार्यके सम्मुख हुए द्रव्यको प्रागभाव शब्दसे अभिहित किया जाता है। उस कार्यका ध्वंस होनेपर वही प्रध्वंसाभाव शब्दसे पुकारा जाता है । वर्तमानमें विवक्षित पर्याय अवस्था अन्य दूसरे द्रव्य की विवक्षित पर्यायकी अपेक्षा इतरेतराभावरूप संज्ञाको प्राप्त होती है। तथा प्रत्येक द्रव्यके स्वचतुष्टय अत्यन्त भिन्न होनेसे प्रत्येक द्रव्य दूसरे द्रव्योंकी अपेक्षा अत्यन्ताभावरूप कहा जाता है। इससे हम जानते हैं कि लोकमें जो भी पदार्थ है वे सब सत्स्वरूप ही हैं । विवक्षाभेदसे वही सत् प्रयोजनवश अभाव शब्द द्वारा अभिहित किया जाता है।
पूर्वमें हम तत्त्वमीमांसाके प्रसंगसे कर्ता-कर्मका उल्लेख कर आये हैं । अतः उससे ऐसा समझना चाहिए कि जड़-जेतन जितने भी द्रव्य है, वे सामान्यपनेकी अपेक्षा ध्रुव या नित्य स्वभाव वाले होकर भी अपनी कक्षा के भीतर होने वाले उत्पाद-व्यय रूप परिणाम स्वभावके कारण अध्रुव या अनित्य भी हैं, अतः परमार्थसे वे स्वयं परिणाम लक्षण क्रियाके द्वारा या परिस्पंद लक्षण क्रियाके द्वारा अर्थक्रियाके कर्ता होते हैं, फिर भी सर्वथा अनपेक्ष होकर अपनी अर्थक्रिया करते हों ऐसा एकान्तसे जैनदर्शन नहीं स्वीकार करता। किन्तु वह प्रत्येक द्रव्यके प्रतिसमय होने वाली अर्थक्रिया रूप कार्य में बाह्य व्याप्तिवश या कालप्रत्यासत्तिवश अन्यकी निमित्तता भी स्वीकार करता है।
जैनदर्शनका इस विषयमें जो कटाक्ष है वह इतना ही कि प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय जो अर्थक्रिया करता है, वह न तो उपादान और बाह्य संयोग-इन दोनोंका मिलकर एक कार्य है और न ही विवक्षित द्रव्य ही क्योंकि वह तो स्वयं अपना कार्य करने में असमर्थ है, अतएव अन्य कोई पदार्थ आकर उसमें अर्थक्रिया द्वारा कार्यका निर्माण कर देता है। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। यदि विचार कर देखा जाय तो प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्यमें जो कार्य होता है, वह मात्र उसी द्रव्यका अपना कार्य है। उसने हो स्वयं अपने समर्थ उपादानके अनसार कर्ता होकर उस कार्यको जन्म दिया है। उस समय उस कार्यके होने में जो बाह्य निमित्त है. वह स्वयं उसी समय अपने परिणाम रूप स्वरूपके कारण विवक्षित द्रव्यसे सर्वथा भिन्न होकर अपने परिणाम लक्षण या क्रियालक्षण कार्यका कर्ता हो रहा है। जैसे एक व्यक्ति साइकिलसे आया। कुछ देर बाद किसीने पच्छाको कि
१. परीक्षामुख, ४-५ । २. वही, ४,८ । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९ । ४. आप्तमीमांसा, का०१०-११ । ५, समयसार, आत्मख्याति, परिशिष्ट । ६. वहो, गाथा ८४ आत्मख्याति !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org