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जैनदर्शनका हार्द सिरिवड्ढमाणजिण, जेण विहाणेण खविदकम्मं सो।
किच्चा तहोवएसं णिव्वुइं पत्तो णमो तस्स ।। इस समय सर्वज्ञ सर्वदर्शी परब्रह्म परमात्मा अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरका धर्मतीर्थ चल रहा है । एक तो प्रतिवर्ष उनका गर्भ-निष्क्रमण दिन मनाया जाता है। दूसरे ऐसा नियम है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष जिसके पादमूलमें बैठकर धर्मपथ स्वीकार करें उसके चरणोंमें विनय प्रकट करनी चाहिए। इस नियमके अनु सार मैं उन मंगलमय जिनदेव भगवान् महावीरका स्मरण-वन्दन कर प्रकृत विषयका संक्षेपमें ऊहापोह करनेके लिए सन्नद्ध होता हूँ।
भारतीय परम्परामें एक दो धर्मदर्शनोंको दुर्लक्ष्य कर इस समय जितने भी जड़-चेतनके स्वतन्त्र अस्तित्वको स्वीकार करनेके लिए धर्मदर्शन प्रचलित हैं, उनमें जैन दर्शनका निराला स्थान है। इसमें प्रतिपादित तत्त्वज्ञानकी पृष्ठभूमिमें स्वावलम्बनमूलक व्यक्ति-स्वातन्त्र्यका महत्त्वपूर्ण योगदान होनेसे लोकमें अपनी अनूठी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। इस दर्शनके अनुसार लोकमें जैनधर्मके रूपमें जो विचारमार्ग और तदनुरूप आचारमार्ग प्रचलित है, उन सबमें उक्त दोनों तथ्य मूर्तिमान् होकर प्रतिफलित हुए हैं।
अज्ञानमूलक विषय-कषायपर जिस विधिसे विजय प्राप्त करनेके फलस्वरूप जिन होकर जिन्होंने स्वयं अनुभूत उपदेश द्वारा जिस धर्मतीर्थका प्रवर्तन किया है। उसे ही लोकमें जैनदर्शन इस नामसे अभिहित किया जाता है । इस दर्शनके पुस्तकारूढ़ होनेका समय कालगणनाकी दृष्टिसे भले ही अन्य दर्शनोंके पुस्तकारूढ़ होनेके
मकालीन या कुछ आगे-पीछेका हो, परन्तु उसमें भगवान महावीरके प्रथम शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति गणधरसे लेकर गुरु परम्परासे आये हुए उसी अनुभति उपदेशको विषय विभागके साथ निबद्ध किया गया है जिसका प्रवर्तन सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) से लेकर तीर्थकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा हुआ है।
__उसके अनुसार छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायके समुच्चय रूप यह लोक अकृत्रिम अतएव अनादिअनिधन है। इसमें जीवों और पदगलोंका संयोग निमित्तक या छहों द्रव्योंका स्वाभाविक-सहज जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, वह प्रत्येक छह द्रव्य या पदार्थका अपना कार्य है । परमार्थसे वह स्वयं उसका कर्ता है और परिणाम उसका कार्य है । जैसे प्रत्येक द्रव्य स्वरूपसे स्थिति अर्थात् ध्रौव्य लक्षणसे लक्षित होकर ख्यालमें आता है, अन्यथा किसी भी वस्तुमें यह वही है जिसे आजसे दस वर्ष पूर्व हमने देखा था, ऐसा ऊर्ध्वता-प्रत्यक
१. जयधवला, पु. १, पृ० ७० । २. धवला, पु० १, पृ० ५५॥ ३. प्रवचनसार १/८२ । ४. धवला, पु० १, पृ० ६५ । ५. पंचास्तिकाय, गा० ३ तथा २२ ।
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