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१२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ मध्यम मार्ग पर अविश्वास
पूँजीवाद और समाजवादकी हमें यहाँ विस्तृत चर्चा नहीं करनी है। हमें तो उन उपायोंकी छानबीन करनी है जिसके आधारसे विश्वको इनकी ऐकान्तिक बराईसे बचाया जा सके। प्रश्न यह है कि व्यक्तिको मर्यादित श्रमकी स्वतन्त्रताके साथ क्या उसी हद तक अर्थकी स्वतन्त्रता दी जा सकती है ? पण्डित जवाहरलाल नेहरू पूँजीवाद और समाजवाद इनमेंसे किसो एक के पक्षमें नहीं थे। मुख्यतया वे उत्तराधिकारमें प्राप्त महात्मा गांधीकी शिक्षाओंको कार्यान्वित करना चाहते थे। उनका कहना है कि यदि रोटो और कपड़ेका प्रश्न हल हो जाय और सबको शिक्षा, स्वास्थ्य और आमोद-प्रमोदके साधन जुटा दिये जाय तो इन दोनोंकी बराईसे विश्वकी रक्षा की जा सकती है। उन्होंने इन विचारोंको अनेक भाषणोंद्वारा व्यक्त किया है। यद्यपि पण्डितजीके ये विचार समझौतेकी भूमिका प्रस्तुत करते हैं अवश्य, पर दूसरी ओर इस कथन पर उतना विश्वास नहीं किया जाता । श्रमवादी तो इसे पूँजीवादके लिए खुली छूट मानते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह इस युगकी प्रधान समस्या है, जिसने इतना उग्ररूप धारण कर लिया है। विश्व व्यवस्था में व्यक्ति स्वातन्त्र्य प्रथम शर्त
साधारणतः यह जनमतका युग है। किसी भी देशकी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था कैसी हो यह काम वहाँकी जनताके निश्चित करनेका है। इस युग में वे ही शिक्षायें विश्वकी शान्ति और सुव्यवस्थामें सहायक हो सकती हैं जो पूर्णतः व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी पोषक होनेके साथ साथ व्यक्तिके वैयक्तिक और सामाजिक जीवनको ऊँचा उठाने में सहायक हों। हमने विश्वके महापुरुषोंके जीवन और उनकी शिक्षाओंका अध्ययन किया है। इस दृष्टिसे हमारा ध्यान श्रमण भगवान् महावीर पर विशेषरूपसे केन्द्रित हो जाता है। इन्होंने श्रम, शम और समके आधार पर जिन उदार तत्त्वोंको अपने जीवनमें उतारा था, उनकी विश्वको सदा आवश्यकता बनी रहेगी। उनका ठीक तरहसे प्रचार करनेपर न केवल विश्वमें शान्ति और सूव्यवस्थाके निर्माण करने में सहायता मिलेगी, अपितु व्यक्तिके चरित्र-निर्माणका मार्ग भी प्रशस्त होगा। मूल प्रवृत्ति और राज्य - यहाँ सर्व प्रथम यह देखना है कि इन महापुरुषोंने संघर्षके मूलमें कौनसी बात देखी। विश्वमें संघर्ष क्यों पनपता है और मनुष्य मनुष्यका शत्रु क्यों बनता है ? यह तो निश्चित है कि विश्वका प्रत्येक प्राणी सखकी कामना रखता है। उसका सारा श्रम, उद्योग और शक्ति इसी कामनाकी पूर्तिके लिए है। सर्वश्रेष्ठ चेतन होनेसे मनुष्यके उद्योग और साधन अधिक विकसित है । दर्शनमें उसके आध्यात्मिक सुखका विश्लेषण है और विज्ञानमें भौतिक सुखका अनुसन्धान । मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और कीट-पतंग भी अपने सुख-साधनका प्रयत्न करते रहते हैं। बाह्य संग्रहके मूलमें यही आत्म-सुखकी प्रवृत्ति काम करती है। परन्तु जिस तरह मनष्यकी बुद्धि, शक्ति और सुखकी आकांक्षा विकसित है उसी प्रकार उसकी लालसा, साधन और संग्रहकी भावना भी प्रबल है । साधारण पशु-पक्षियोंकी जीवनवृत्तिके विश्लेषणसे यह बात स्पष्ट हो जाती है । उनमें यह प्रवत्ति बहत ही अल्प मात्रामें पाई जाती है। चींटी आदि कुछ ही प्राणी ऐसे हैं जिनमें इस प्रवत्तिकी बहुलता देखी जाती है। शेष तिर्यंच अपने-अपने भोजनकी खोजमें निकलते हैं और उसके मिल जाने पर वे शान्त हो जाते हैं। फिर वे ऐसा कोई काम नहीं करते जिसे समाज-विरोधी कहा जा सके। किन्तु मनुष्योंमें यह संग्रह करनेकी प्रवृत्ति आवश्यकतासे अधिक पाई जाती है। ये जितनेकी आवश्यकता होती है उससे कहीं अधिकका संचय करते हैं और इनका यह काम समाज-विरोधी नहीं माना जाता, प्रत्युत इसके अनुकूल समाजने कुछ ऐसे नियमोंका निर्माण किया है जिनके विरुद्ध आचरण करनेवालेको समाज (राज्य) की ओर से कठोर दण्ड भोगना पड़ता है।
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