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स्वाध्याय
स्वाध्याय इस शब्दका वास्तविक अर्थ आत्मचिन्तवन समझना चाहिए । स्व शब्दका अर्थ आत्मा और अध्याय शब्दका अर्थ चितवन अथवा ध्यान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रतिदिन इस प्राणीको आत्म-चितवनमें अपना समय व्यतीत करना चाहिए। शास्त्र आदिके अध्ययन करने को भी स्वाध्याय कहते हैं, उसका इतना ही प्रयोजन है कि इस विषमतारूप संसारका और इस जगत् में विद्यमान समस्त पदार्थोंका यदि योग्य परिज्ञान नहीं हुआ तो आत्मतत्त्वकी परख करना कठिन हो जावेगी । कारण, यह संसारी प्राणी मोह और अज्ञानके कारण शरीराधित क्रियाओंको ही आत्मत्वकी कल्पना करके बैठा है। इसलिए जब वह भेदविज्ञानके कारणभूत शास्त्रोंका निरन्तर अभ्यास करने लगेगा तभी इसे शुद्ध आत्मस्वरूपका ज्ञान हो सकेगा । स्वाध्यायका सबसे प्रथम प्रयोजन भेदविज्ञानकी प्राप्ति है, इसलिए सर्वप्रथम भेदविज्ञान के कारणभूत द्रव्यानुयोगका स्वाध्याय करना ही उपयुक्त है। परन्तु इस जीवकी पहली अवस्था इतनी अपरिपक्व है कि उसके रहते हुये भेदविज्ञानके प्रतिपादक शास्त्रोंका स्वाध्याय करके भी इसे अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं होता है । इसलिए सबसे पहले पुण्य और पाप और उसके फलके ज्ञान करानेवाले तथा उसी प्रकार धीरे-धीरे विवेचनात्मक पद्धति से पदार्थों के स्वरूपके और अपनी आभ्यान्तर-बाह्य क्रियाओंका ज्ञान करानेवाले शास्त्रोंका भी स्वाध्याय करना चाहिए । ऐसा करनेसे अपनेको पुण्य-पापरूप अवस्था, पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप और स्वयं आचरण करने योग्य चारित्र इनका यथार्थं बोध हो जायगा ।
यहाँ पर इतना ध्यानमें रखना चाहिए, कि संसारमें जो व्यवहार और विचारोंमें एकान्तता नजर आती है, उसका कारण केवल उस विषयकी प्रधानताको प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका ही स्वाध्याय सम झना चाहिए। हमारे यहाँ वस्तुतत्त्व और उसके व्यवहारका विवेचन करनेवाले चार अनुयोग होते हुए भी उनके स्वाध्यायका क्रम बहुजन समाजको मालूम नहीं होनेसे अपनी इच्छाके अनुसार किसी एक अनुयोगके ग्रन्थोंका स्वाध्याय करके वे उसके एकान्ती बन जाते हैं, परिणाम यह होता है कि किसीको व्यवहारमें धर्म दिखता है तो किसीको विचारोंमें । कोई रूढ़िसे आई हुई, परन्तु लौकिक क्रियाओंको ही धर्मका चोगा पहनाकर उनसे मुक्ति प्राप्त करना चाहते है तो कोई व्यवहार जगत्को सर्वथा असत्य मानकर विचारोंकी प्रमुखता से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं । परन्तु वे व्यवहारी जिन्हें आत्मतत्त्वके स्वरूपके पहचानकी गंध भी नहीं है ऐसे लोग शास्त्रका आधार लेकर लौकिक क्रियाओंको करते हुए मोक्षमार्गी नहीं हो सकते हैं । शास्त्रकारोंने ऐसे जीवोंको व्यवहाराभासी कहा है उसी प्रकार जो बहुजन समाजके ऊपर क्या परिणाम होगा, इधर थोड़ा भी लक्ष्य न देकर इस व्यवहारप्रधानी जगत्को अपने विचारोंका ही केन्द्र बनानेका सुखस्वप्न देखते हैं और स्वयं भी उन विचारोंकी मनोहर कल्पनाओंसे अपनेको संसारमुक्त समझनेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग जिनकी दृष्टि में यह भी योग्य और वह भी योग्यकी दृढ़ श्रद्धा जमी हुई हैं, उनको अज्ञानी कहते हैं । परन्तु वे इस बातको बिल्कुल भूल जाते हैं कि यह संसार पुद्गल और चेतनाका मेल होनेके कारण हमारी क्रियाओंमें दोनों ही तत्त्वोंका प्रतिबिम्ब पड़े बिना नहीं रह सकता है, अतएव जो क्रिया आत्मा और शरीर इन दोनोंकी पोषक न होकर हानिकर है, उनका भी हमें त्याग करना होगा। उसी प्रकार जो विचार भेद-विज्ञानकी ओटमें शरीर सम्बन्धी क्रियाकी तरफ बिल्कुल दुर्लक्ष्य करते हैं, उनका भी हमें त्याग करना होगा। इसलिए केवल विचारवादियोंको भी शास्त्रकारोंने मिथ्यादृष्टि कहा है। इस तरह
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