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चतुर्थ खण्ड: १५३
इस समय आत्मधर्मकी अपेक्षा रूढिधर्मको विशेष प्रमुखता मिल गयी है। आम जनता आत्मधर्मका विचार न कर मात्र रूढ़िधर्मका विचार करने लगी है। तत्त्वोपदेश, पूजा, खान-पान और सामाजिक व्यवहारमें ऐसे तत्त्वप्रविष्ट हो गये हैं, जो स्पष्टतः धर्मविरोधी हैं। पर उनका समर्थन करनेका प्रयत्न किया जाता है और जो हम प्रवृत्तिका विरोध करते हैं, उन्हें धर्मद्रोही कहा जाता है। जैनधर्म सामाजिक व्यवहारमें ऊँच-नीचके कल्पित भेदको वास्तविक नहीं मानता, कल्पित जाति और कुलके अहंकारको छोड़नेकी बात कहता है, भोजन किसके हाथसे मिला है इसका विचार न कर मात्र भोजन शुद्धिका विचार करता है, जीहुजूरी उपदेशोंमें ईश्वरवादकी छाया होनेसे उन्हें जीवन शुद्धि में प्रयोजक नहीं मानता और पूजनमें द्रव्यकी उठाधरीकी अपेक्षा परिणामोंकी शुद्धिपर अधिक जोर देता है फिर भी वर्तमान समयमें हमसे सर्वथा विरुद्ध प्रवृत्ति हो रही है और उसे धर्म समझकर उसका समर्थन किया जाता है। इस समय जीवनकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें विकार आ गया है अतः उसके संशोधनकी महती आवश्यकता है । शास्त्रोंमें कर्म और कर्मफलको आत्मधर्म माननेकी कट आलोचनाकी गयी है, पर उनकी बात सुनता ही कौन है। सबकी दृष्टि लौकिक क्रियाकाण्डमें उलझी हुई है । जो मोक्षमार्गसे दूर हैं वे तो ऐसा करते ही हैं, किन्तु जो अपनेको प्रतिभाधारी, व्रती, साधु मानते हैं, वे भी प्रायः ऐसा ही करते हुए पाये जाते हैं। आज उल्टी गंगा बहाई जा रही और यह सब हो रहा है जैनधर्मके नामपर। आचार्य कुन्दकुन्दने धर्मकी व्याख्या की है । वे प्रवचनसारमें लिखते हैं :
"चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दट्ठो ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥" चारित्र ही धर्म है जो 'सम' इस शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और समका अर्थ है मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम । सनातन प्रक्रियासे जीवनमें कमजोरी आई हुई है जिसके कारण जीव अपने स्वरूपको पहिचानने में असमर्थ है। इतना ही नहीं वह मोह और कषायवश अन्य बाह्य-पदार्थों में उलझा रहता है और कर्मके निमित्तसे इसकी जो विविध अवस्थाएँ होती हैं, उन्हें अपना स्वरूप मानता रहता है तथा उनके संयोग-वियोगमें सुखी-दुःखी भी होता रहता है। सम्यग्दर्शनका काम इनका विवेक करा देना है। इस का उद्देश्य और गन्तव्य मार्ग निश्चित हो जाता है । वह उस धर्मको पहचानने लगता है, जो उसका स्वभाव है, वह सोचता है।
"एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्व संजोगलक्खणा ॥" मेरी आमा शाश्वत होकर स्वतन्त्र तो है ही किन्तु उसका स्वभाव भी एक मात्र ज्ञान-दर्शन है । इसके सिवा मुझमें और जो कुछ भी दिखाई देता है वह सब संयोगका फल है।
सम्यग्दर्शनकी चर्चा पञ्चाध्यायीमें विस्तृत आधारोंपर की गई है । इसमें चेतनाके तीन स्तर बतलाये हैं-कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना। इनमें से प्रारम्भकी दो चेतनाएँ अज्ञान दशामें होती हैं। ज्ञानीके एकमात्र ज्ञानचेतना होती है । वह मात्र ज्ञान-दर्शनको ही अपना स्वभाव मानता है और उसीमें रममाण होनेका प्रयत्न करता है । कदाचित् जीवनकी कमजोरीवश वह संयोगज भावोंमें भी रति और अरति करता हुआ पाया जाता है। तो भी उसे वह अपना स्वभाव नहीं मानता। सम्यग्दर्शनकी महिमा बड़ी है । यह जीवनका वह स्रोत है, जिसके कारण जीव अपनी स्वतन्त्रताको अनुभव करता है। उसे न जीवनका
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