________________
चतुर्थखण्ड : १५१
रुचि ही नहीं होती हैं । अब आप देखेंगे कि सम्यग्दृष्टि जीवके सामने न्याय्य और अन्याय्य - इन दो बाजू के उपस्थित होने पर अपना नुकसान उठा कर भी वह न्याय्यवृत्तिका ही समर्थन करेगा । कदाचित् अज्ञान के कारण उसके हाथसे अन्यायावृत्तिके पोषक भी कार्य होते रहेंगे परन्तु वे कब तक, जब तक उसकी समझ में यह नहीं आवेगा कि मेरा यह अज्ञान है, अतएव मेरे ये कार्य आत्मघातकी और समाज स्वास्थ्य के लिये विघातक हैं । उसकी समझमें इतनी बातके आते ही वह उसी समय अपनी हठको छोड़कर अपने दोषको स्पष्ट शब्दो में 'कबूल कर लेगा । इतना ही नहीं बल्कि उसको भूलने उपन्न हुये नुकसानको भरकर उस दोषको निकालने का भी वह भरसक प्रयत्न करेगा । विश्लेषण करके यदि यह अर्थ निकाला जावे तो इस प्रकार अर्थ निष्पन्न होगा कि मिथ्यात्व के त्यागसे अतत्त्वको छोड़कर तत्त्वबुद्धि और अनन्तानृबंधी के अभावसे तदनुकूल प्रवृत्ति होती है । इतने विवेचनसे यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टिके जाननेका मुख्य साधन क्या है जहाँ पर किसी भी तत्त्व विचारककी स्वभावतः इस प्रकारकी वृत्ति देखने में आवे वहाँपर सम्यग्दर्शनका अंश जागृत है, ऐसा समझने में कुछ भी आपत्ति नहीं है। सच्चे देशविरत और महाविरतके भी ऐसे ही कुछ विलक्षण सामर्थ्य उत्पन्न होती हैं । बाह्यचारित्र देशविरत और महाविरतके पहिचानका कुछ चिह्न नहीं हैं। हाँ ! उस देशविरत और महाविरत रूप परिणामके होनेपर बाह्यचारित्र अपने आप होता है । इस तरह इन तीन प्रकारके पात्रोंको दान देना पात्रदान है । यहाँपर संसार सम्बन्धी कुछ भी प्रयोजनकी मुख्यता नहीं रहती है । यह पात्रदान चार विभागों में बाँटा गया है। आहारदान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान ( वसतिकादान ) - इन चारों ही दानोंका अर्थ प्रसिद्ध है । फिर भी यहाँ पर आहारदानसे औषधिदानको पृथक कहने के प्रयोजनका खुलासा कर देना उचित प्रतीत होता है ।
साधु अनुद्दिष्ट आहार ग्रहण करते हैं अर्थात् श्रावकके घर श्रावकके द्वारा अपने लिये ही तैयार किये हुए आहारमें से साधु आहार ले लेते हैं । परन्तु औषधिके लिये यह बात लागू नहीं हो सकती है । औषधि रोगका प्रतिकार है । अतएव जिस साधुको जिस प्रकारकी शारीरिक बाधा उत्पन्न हुई होगी उसी प्रकारको औषधिको देकर शरीरबाधाका निराकरण किया जावेगा । यहाँपर उद्दिष्ट दोषका परिहार नहीं हो सकता है । आहारदान से भिन्न औषधिदानको रखनेका यही प्रयोजन प्रतीत होता है ।
दयासे प्रेरित होकर जो दान दिया जाता है उसमें गुण और अवगुण न देखकर परिस्थितिकी प्रधानता
होती है ।
तीसरी समदत्ति है । इसमें आदान प्रदानका भाव रहता है । परन्तु आजका विकृत रूप समदत्ति कभी भी नहीं कही जा सकती है । यह किसी दोषका प्रमार्जन न होकर दोषकी अभिवृद्धि मात्र है ।
जहाँपर श्रावकोंसे जबर्दस्ती भोजन ठहराये जाते हैं, उसमें भी अमुक वस्तु ही बनानी होगी, इत्यादि बातें ठहराई जाती हैं, उसको धर्ममें स्थान कँसे मिल सकता है । पानी जैसी पतली वस्तुके साथ कोमलताका व्यवहार करनेवाले जैन भाई अपने सहधर्मी भाइयोंके साथ कठोरताका व्यवहार करते हैं, इसको अधर्म नहीं तो और किन शब्दोंमें कहा जावे । श्रावकोंका यह कठोर व्यवहार कभी भी त्यजनीय है । इससे गरीबोंको कितने अधिक संकटों का सामना करना पड़ता है, इस बातको हमारे विचारे श्रीमन्त क्या जानें ।
इस तरह यह दानका व्यावहारिकरूप समझना चाहिए। संपत्ति और शक्ति विनियोगकी वस्तु है, संग्रह करनेकी नहीं । जो इनके संग्रह करनेमें ही महत्त्व समझता है, वह समाज और धर्मका द्रोही तो है ही साथ ही आत्मवंचक भी है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org