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चतुर्थ खण्ड : १४९
यहाँपर विचारनेकी बात है कि ऐसे मामले क्यों उठ खड़े होते हैं। विचारके बाद यही कहना पड़ता है कि आजकल लोगोंमें उदात्त और सात्त्विकभावके अतिरिक्त दांभिक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। लोग कर्तव्यकी अपेक्षा कार्यको अधिक महत्त्व देने लगे हैं । छोटेसे छोटा और बड़ेसे बड़ा कार्य करते हुए बहुत कुछ मनुष्योंकी यह भावना रहती हैं कि जनताके सामने 'इसका कर्ता मैं हूँ' यह बात स्पष्ट नजर आनी चाहिए। उन्हें आज पुण्यबंधके प्रयोजक शुभ-परिणामोंकी इतनी कीमत नहीं रही है जितनी कि यशोगानकी।
आज हम आगन्तुक अतिथिकी अपेक्षा निमंत्रित अतिथिको अधिक महत्व देते हैं । सीधे शब्दोंमें इसका यही अर्थ है कि हम सच्ची भूखकी कल्पनाको भूलकर खोटी भूखके पीछे दौड़ते है। हम श्रीमंत मनुष्यका जितना अधिक सत्कार करते हैं, गरीबका सत्कार करने में उसका शतांश भी नहीं रहता है। परन्तु यह विचार मनमें कभी भी नहीं आता है कि जिस खेतमें पानी दिया जा चुका है उसी खेतमें पुनः पुनः पानी देनेसे क्या फायदा । तृषित कौन और क्षुधित कौन यह भावना तो हमारी कभीकी नष्ट हो गई है। महतो महत्फलम्' यह तो हमें मालूम है, परन्तु महत्वकी मोजमाप गुणाधिष्टित न रहकर वैभवाधिष्ठित होती जा रही है ! परन्तु यह निश्चित समझिये कि रोज मिष्ठान्नभोजीको मिष्ठान्नका भोजन कराने पर उससे शुभ कामनाकी आशा करना असम्भव बात है । शुभकामनाकी आशा तो तृषित अथवा क्षुधितसे ही की जा सकती है। यहाँ पर मैं पाठकोंको एक स्थानका स्वतःका अनुभव लिख देनेके लिए अपनी इच्छाको संवृत नहीं कर सकता हूँ। मैं कहीं पर विमानोत्सबके लिये गया हआ था। वहाँ पर पंडितजी इस दृष्टि से मुझे भो विशिष्ट पाहुनोंके लिये किए गए पाहुनचारका सौभाग्य प्राप्त हुआ । परन्तु वह स्थान भी भेदसे खाली नहीं था। मुझसे भी आगे जिनका नम्बर था उनके लिए और भी अधिक स्वतंत्र व्यवस्था थी। अतिथि-सत्कार करनेवाली बाई थोड़ी भोली थी, इसलिए उसने मुझे ही प्रथम नम्बरका पाहुना समझकर मुझे ही सर्वश्रेष्ठ सामग्री परोसनेका प्रारम्भ कर दिया। यह बात चाणाक्ष दूसरी बाईने देख ली । पहले तो उस बाईने संकेतसे परोसनेवाली बाईको समझाया, परन्तु जब उस बाईका दूसरी बाईके संकेतके ऊपर ध्यान नहीं गया तो उसे वहीं पर मेरे देखते ही स्पष्ट मना करना पड़ा । यहाँ पर पाठकोंको यह ध्यानमें रखना चाहिये कि पूर्वोक्त व्यवस्थामें शोलाका कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। इस व्यवहारसे मेरी आँखोंमें चक्क प्रकाश पड़ गया। मुझे अपनी भूल वहींसे समझमें आई, और उस दिनसे लेकर आज तक मैं जान बूझकर ऐसी भूल नहीं होने देता हूँ। अब मुझे बहजन समाजके लिए तैयार किए हुए भोजनमें जो आनंद आता है, वह आनंद स्वतन्त्र व्यवस्थामें कभी भी नहीं आता है। दक्षिण प्रान्तकी अपेक्षा यह भेद-भाव उत्तरप्रान्तमें अधिक देखने में आता है। मेरी समझसे जैन-समाजको छोड़कर यह परिस्थिति दुसरी समाजमें भी इतने रूपमें नहीं है । दक्षिणप्रान्तमें यह भेद नहीं ही है, यदि ऐसा कहा जावे तो भी चलेगा।
श्वेताम्बर समाजमें ही लीजिये, उनके यहाँ ग्रन्थप्रकाशनका काम जितनी उत्तम पद्धतिसे चालू है। अधिक से अधिक खर्च करके सुन्दरसे सुन्दर पद्धतिसे ग्रन्थ प्रकाशित करते हैं। परन्तु हमारी समाजमें इस ओर शतांश भी लक्ष्य नहीं दिया जाता है। जिस किसी तरहसे ग्रन्थ प्रकाशित करके वे अपने कर्तव्यकी इतिश्री समझते हैं। परिणाम यह होता है कि समाजके बाहिर उन ग्रंथोंका उल्लेख करने योग्य उपयोग नहीं होता है।
मणि थोड़े होते हैं इस कथनको तो आत्मप्रौढिके अतिरिक्त और कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता है। थोड़ी देरके लिये यदि इस कथनको वस्तु स्थिति ही मान ली जावे तो भगवान् महावीरके समय भी वही स्थिति लागू करनी पड़ेगी । परंतु हमारे पुराण-ग्रन्थ ही नहीं, इतिहास भी आज इसको साक्षी देता है कि उस
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