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सम्यग्दर्शन
शास्त्रोंमें सम्यग्दर्शनकी चर्चा कई प्रकारसे की गयी है। कहीं जीवादि सात पदार्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है; कहीं आप्त, आगम और गुरुके यथार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है; कहीं स्वानुभुतिको सम्यग्दर्शन कहा है और कहीं स्वपर विवेकको सम्यग्दर्शन कहा है। इन सबका अभिप्राय एक है। इनके द्वारा एकमात्र यही ज्ञान कराया गया है कि एक जानने-देखने वाली शक्ति क्या है और तदितर पदार्थ क्या है।
___ जीवनमें सम्यग्दर्शनका बड़ा महत्त्व है । यह वह विवेक-सूर्य है जिसके उदित होनेपर मिथ्यात्वरूपी तम सुतरां पलायमान हो जाता है । यह स्वतन्त्रता प्राप्तिकी प्रथम सीढ़ी है । अधिकतर व्यक्ति विविध प्रकारके तप करते हैं, नग्न रहते हैं और साधु बननेका दावा भी करते हैं, पर इसके बिना यह सब क्रिया-कलाप संसारका कारण है । यह सब प्रकारके अहंकारसे मनुष्यकी रक्षा करता है । इसके होनेपर नामरूपका अहंकार तो होता ही नहीं, जीवनमें प्राप्त हुई ऋद्धि-सिद्धिका भी अहंकार नहीं होता। शास्त्रोंमें आठ मद, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष और तीन मूढताओंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। यह इन बुराइयोंसे व्यक्तिकी सदा रक्षा करता है।
__सम्यग्दर्शन दो शब्दोंके मेलसे बनता है । सम्यक् और दर्शन । प्रत्येक पदार्थका जो स्वरूप है उसे ठीक तरहसे अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है, यह इसका तात्पर्य है।
जैसा कि हम देखते हैं कि संसार अवस्थामें जीव और शरीर दोका मेल हो रहा है। इनके कार्य भी मिलकर हो रहे हैं । इसलिए प्रत्येक व्यक्तिको यह विवेक करना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन कार्य शरीर का है और कौन कार्य आत्माका है। बहुतसे तो ऐसे भी व्यक्ति है जो शरीर और आत्माको दो नहीं मानते । वे माता-पितासे इसकी उत्पत्ति मानते हैं और शरीरके विनाशको ही आत्माका मरण मानते हैं । वे एकमात्र कामको ही जीवनका पुरुषार्थ मानते हैं । इनके इस मतको व्यक्त करते हुए एक कविने कहा है
'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥" इसमें न केवल वर्तमान जीवनको चिरकाल तक जीवित रखकर उसे हर प्रकारसे पुष्ट करनेकी बात कही गई है, किन्तु यह कार्य यदि समाज-विरोधी तत्त्वोंको स्वीकार करके सम्पन्न किया जा सकता है तो इस द्वारा वैसा करनेकी छूट दी गई है। जिनके हाथमें धर्मका झंडा है, उन्हें यह एक प्रकारकी चुनौती है। इस द्वारा कहा गया है कि परलोककी बात छोड़ो, पुण्य-पापकी बात छोड़ो, अपने लौकिक जीवनकी ओर देखो, वही सब कुछ है ।
किन्तु जो आत्मा और शरीरको दो मानते हैं उनमेंसे भी बहुतोंकी गति इससे कुछ भिन्न नहीं है । वे वचनों द्वारा आत्माकी बात तो करते हैं, मन्दिरमें जाकर पूजा प्रभावनाकी क्रिया भी सम्पन्न करते हैं और भोजनमें भी चुन-चुनकर पदार्थ उपयोगमें लाते हैं, पर उनकी दृष्टिका यदि सूक्ष्मतासे अध्ययन किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि उनका समस्त श्रम एकमात्र शरीरके लिए ही हो रहा है। वे शरीराश्रित क्रियाओंसे आत्माश्रित क्रियाओंका विवेक करनेमें असमर्थ है।
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