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१६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ एकबार पदार्थोंमें अहंबुद्धिका त्याग हो जाने पर राग-द्वेष स्वयं काल पाकर विलयको प्राप्त हो जाते हैं (१८१)।
इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । उनमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ सबसे प्रबल हैं। कदाचित् शेष इन्द्रियोंके विषयोंसे यह विरक्त भी हो जाय, पर इन दो इन्द्रियोंके विषयसे विरक्त होना आसान नहीं है। हमने देखा है कि साधु इष्ट और गरिष्ठ भोजन लेता है तो भी वह उतना अपवादका पात्र नहीं होता जितना कि स्पर्शन-जन्य दोषके कारण उसे न केवल अपवादका पात्र होना पड़ता है, अपितु लोकमें उसकी प्रताड़ना भी की जाती है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमें स्त्रीके दोष दिखा कर साधुको किसी भी प्रकारसे स्त्री सम्पर्कसे दूर रहनेकी शिक्षा पद-पदपर दी गई है। और कहा गया है कि मन तो नपुंसक है। वह विषयका उपभोग क्या करेगा । उसमें यह सामर्थ्य ही नहीं (१३७) ।
यद्यपि हम जानते हैं कि प्राचीन कालमें भी ऐसे पण्डित और साधु होते रहे हैं, जिन्होंने अपने मलिन चारित्र द्वारा निर्मल जैनमार्गको मलिन करनेमें कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी।' मलाचारमें ऐसे साधुओंके पाँच प्रकार बतलाये गये हैं। उनके नाम हैं-पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपगतसंज्ञ और मृगचरित्र । वहाँ इन्हें संघ बाह्य कहकर इनकी वन्दना करनेका भी निषेध किया गया है। लिंगपाहुडमें भी आचार्य कुन्दकुन्दने ऐसे मुनियोंको मुनिपदके अयोग्य कहा है। अतः समग्र ग्रन्थका सार यह है कि साधु जैसे ऊँचे पद
हर प्रकारसे उसकी सम्हाल करनी चाहिये । बालक तो पालना आदिसे गिरनेसे डरता है, फिर साधु संयम जैसे महान् पदका अधिकारी होकर भी उससे गिरने में भय न करे, यह आश्चर्यकी बात है।
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१. पण्डितैभ्रष्टचारित्रैः वठरैश्च तपोधनै ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ।। २. मूलाचार, षडावश्यक अधिकार गा० ९५ । ३. देखो, गाथा १४, १७, २० आदि । ४. आत्मानुशासन पृ० १६६ ।
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