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मुनि और श्रावक-धर्म
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। इसमें मुक्ति और उसके कारणोंकी मीमांसा सांगोपांग और सूक्ष्मताके साथ की गयी है । इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें प्रवृत्तिके लिये यत्किचित् भी स्थान नहीं है । वस्तुतः प्रवृत्ति कथंचित् निवृत्ति की पूरक है । अशुभ और शुभसे निवृत्ति होकर जीवकी शुद्ध आत्मस्वरूपमें प्रवृत्ति हो यह इसका अन्तिम लक्ष्य है । यहाँ शुभसे हमारा अभिप्राय शुभरागसे है । राग भी बन्धका कारण है, इसलिए वह भी हेय है ।
इसका अपना दर्शन है जो आत्माकी स्वतन्त्र सत्ताको स्वीकार करता है । आचार्य कुन्दकुन्द समयसार - परसे भिन्न आत्माकी पृथक् सत्ताका मनोरम चित्र उपस्थित करते हुए कहते हैं - अहो आत्मन् ! ज्ञानदर्शनस्वरूप तू अपनेको स्वतन्त्र और एकाकी अनुभव कर । विश्वमें तेरे दायें-बायें, आगे-पीछे और ऊपर-नीचे पुद् गलकी जो अनन्त राशि दिखालाई देती है उसमें अणुमात्र भी तेरा नहीं है । वह जड़ है और तू चेतन है । वह विनाशक है और तू अविनाशीक पदका अधिकारी । उसके पास सम्बन्ध स्थापित कर तूने खोया ही है, कुछ पाया नहीं । संसार खोनेका मार्ग है । प्राप्त करनेका मार्ग इससे भिन्न है ।
जैनधर्म एकमात्र उसी मार्गका निर्देश करता है जो आत्माके निज स्वरूपकी प्राप्ति में सहायक होता है । यद्यपि कहीं-कहीं स्वर्गादिरूप अभ्युदयकी प्राप्ति धर्मका फल कहा गया है, किन्तु इसे औपचारिक ही समझना चाहिए । धर्मका साक्षात् फल आत्मविशुद्धि है । इसकी परमोच्च अवस्थाका नाम ही मोक्ष है । यह न तो शून्यरूप है और न इसमें आत्माका अभाव ही होता है । संसारमें संकल्प-विकल्प और संयोगजन्य जो अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, मुक्तात्मामें उनका सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिए जैनधर्म में मुक्तिप्राप्तिका उद्योग सबके लिए हितकारी माना गया है ।
१. मुनिधर्म
दूसरे शब्दों में यह वात यों कही जा सकती है कि जैनधर्म प्रत्येक आत्माकी स्वतन्त्र सत्ताको स्वीकार करके व्यक्ति-स्वातन्त्र्यके आधारपर उसके बन्धनसे मुक्त होनेके मार्गका निर्देश करता है। तदनुसार इसमें मोक्षमार्गके दो भेद किये गये हैं- प्रथम मुनिधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म । मुनिधर्म पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षाका दूसरा नाम है |
अट्ठाईस मूलगुण
इसमें किसी भी प्रकारकी हिंसा, असत्य, चोरी और अब्रह्मके लिए तो स्थान है ही नहीं । साथ ही साथ साधु अन्तरंग और बहिरंग पूर्ण परिग्रहका त्यागी होता है । वह अपना समस्त आचार-व्यवहार यत्नाचार पूर्वक करता है । चलते समय जमीन शोधकर चलता है। बोलनेका संयम रखता है । यदि बोलता भी है तो हित, मित और प्रिय वचन ही बोलता है । शरीर द्वारा संयमकी रक्षा के लिए अयाचित और अनुद्दिष्ट निर्दोष भोजन दिनमें एक बार लेता है । पात्र और आसनको स्वीकार नहीं करता । आहारके ग्रहणकी पूर्ति अञ्जलिबद्ध दोनों हाथोंसे हो जाती है और खड़े-खड़े ही उपकरणोंमें आसक्ति किये बिना आहार लिया जा सकता है, इसलिए पात्र और आसनका आश्रय नहीं लेता । संयमकी रक्षा और ज्ञानकी वृद्धिके लिए वह पीछी; कमण्डलु और शास्त्रको स्वीकार करता है । किन्तु उनके उठाने धरनेमें किसीको बाधा न पहुँचे, इस अभिप्रायसे वह पूरी सावधानी रखता है । मल-मूत्र आदिका क्षेपण भी निर्जन्तु और एकान्त स्थानमें करता है । काय
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