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चतुर्थ खण्ड : १६३
- इसी बातको भावार्थमें स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं-जैसे वृक्षकी. शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जानेपर शाखा आदि कैसे होंगे? इसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ॥३॥
यह सब शास्त्रोंका निचोड़ है । जीवनमें जिनागमके अनुसार अनेक प्रकारके जीवाजोवादि पदार्थों के सम्यक् निर्णय पूर्वक हेय उपादेयका जानना ही सम्यग्दृष्टिका लक्षण है।' इसके होनेपर व्रत, संयम नियमका आचरण करना हो इष्ट फलको देनेवाला होता है. अन्यथा वे न होने के समान है. क्योंकि केवल उनके होनेसे संसार छेद नहीं होता।
इस पूरे कथनका सार यह है कि कदाचित् दूसरेकी बलजबरीसे पाँच मूलगुणों और रात्रिभोजन त्यागरूप व्रतमें दोष लग जाय या क्वचित्, कदाचित् उपकरण और शरीरके संस्कार आदिका परिणाम हो जाय या कदाचित् किसी साधुके उत्तरगुणोंमें विराधना हो जाय तो भी उसके द्रव्यलिंगकी अपेक्षा इस प्रकारको विविधता होनेपर भी वह साधपदसे च्युत नहीं होता। ऐसा होनेपर भी उसके संयमस्थानोंसे सर्वथा पतन नहीं होता। जघन्यादिके भेदसे उसके संयमस्थान बने रहते हैं। यही कारण है कि आगममें ऐसे मुनियोंको भी स्वीकार कर उनकी गुरु पदपर प्रतिष्ठा की गई है। स्वपक्षके समर्थनमें यह दो आचार्योका अभिप्राय है जो अनुकरणीय है।
किन्तु लोकमें ऐसे मुनियोंकी कमी नहीं जो गुरुपर्व क्रमसे प्राप्त आगमकी अवहेलना कर उत्सूत्र आचरण करने में हिचकिचाहटका अनुभव नहीं करते । ऐसे मुनियोंको ध्यानमें रखकर ग्रन्थकारने ये उदगार प्रकट किये हैं कि ग्रहण किये गये तपको स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरों द्वारा यदि लूट लिया जाता है तो जन्म-परम्पराको बढ़ानेवाले उस तपकी अपेक्षा गृहस्थ होकर जीवन यापन करना ही श्रेष्ठ है (१९८)। वे इतना ही कह कर नहीं रह जाते । वे पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि साधो ! यह शरीर और स्त्री दोनों एक डग भी निश्चयसे तेरे साथ जानेवाले नहीं हैं। इनमें अनुराग कर तू धोखा खा रहा है । इस शरीरसे जो तूने गाढ़ स्नेह कर रखा है और इस कारण विषयोंमें अपनेको उलझा रखा है उसे छोड़, इसीमें तेरा कल्याण है (१९९)। हम यह जानते हैं कि सर्वथा भिन्न दो पदार्थ मिलकर एक नहीं हो सकते । फिर भी तू पूर्वोपाजित किसी कर्मके अधीन होकर इन शरीर आदि पदार्थोंमें अभेद-बुद्धि करके तन्मय हो रहा है। पर वास्तवमें वे तुझ स्वरूप है नहीं। फिर भी तू उनमें ममत्व-बुद्धि करके इस संसाररूपी वनमें छेदे-भेदे जानेकी चिन्ता न करके भटक रहा है (२००) । विचार कर यदि तु देखेगा तो यह निश्चय करनेमें देर नहीं लगेगी कि ये माता-पिता और कुटम्बीजन तेरे कोई नहीं हैं। इनका सम्बन्ध शरीर तक ही सीमित है। अतः शरीर सहित इनमें अनुराग करनेसे क्या लाभ ? उसे छोड़।
परमार्थसे देखा जाय तो तु कर्मादि पर वस्तुके सम्बन्धसे रहित होनेके कारण शुद्ध है, ज्ञेयरूप समस्त विषयोंका ज्ञाता है तथा रूप-रसादिसे रहित ज्ञानमूर्ति है। यह तेरा सहज स्वरूप है। फिर भी इस शरीर में अनुरागवश तू इस द्वारा अपवित्र किया जा रहा है। सो ठीक ही है, कारण कि यह अपवित्र जड़-शरीर लोकमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसे अपवित्र नहीं करता (२०२), अतः इस शरीरके स्वभावको हेय जानकर उसमें साहस पूर्वक मुर्छाको छोड़ देना यही तेरा प्रधान कर्तव्य है। यह मोह बीजके समान है। बीजसे ही वृक्षकी जड़ और अंकुर उत्पन्न होते है । मोहका भी वही काम है। रागद्वेषकी उत्पत्तिका मूल कारण यह मोह ही है।
१. सूत्रपाहुड, गा० ५। २. तत्त्वार्थवार्तिक, अ०९ सू० ४७ ।
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