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१५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
भय रहता है और न मरणका ही । वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त होता है, क्योंकि वह इन्हें बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग से सम्बन्ध रखनेवाली अवस्थाएँ मानता है । वह सोचता है कि जीवनके इहलोक और परलोक ये भेद शरीर सम्बन्धकी अपेक्षासे किये जाते हैं । जब तक वर्तमान शरीरका सम्बन्ध है तब तक इहलोक कहलाता है और आगामी शरीर सम्बन्धकी अपेक्षा परलोक, ऐसा व्यवहार किया जाता है । जब कोई यह विचार करता है कि मेरा परलोक अच्छा हो तब उसका यह विचार मुख्यतया आगामी शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाला होता है । ऐसा विचार इहलोक और परलोकको माननेवाले प्रत्येक जीवका होता है । किन्तु परलोक सर्वथा व्यक्तिके विचारपर अवलम्बित नहीं । विचारका आचारसे मेल होना चाहिये । उसमें भी विचार और आचार- ये दोनों बाह्य परिस्थितिसे उतने प्रभावित नहीं होते जितने क वे उस उस व्यक्तिके जीवन क्रमपर अवलम्बित रहते हैं ।
यह कौन नहीं जानता कि प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है । सुख प्राप्तिका मार्ग भी एक ही हो सकता है । फिर भी व्यक्ति-व्यक्ति के आचार और विचारमें भेद क्यों दिखाई देता है ? क्यों एक जीवनशुद्धिके अनुकूल अपना आचरण करता है और विचार भी तदनुकूल बनाता है और दूसरा इससे ठीक विपरीत प्रवृत्ति करता हुआ दिखाई देता है । उत्तर स्पष्ट है कि संसारके सभी प्राणी अपनेको पहिचाननेमें असमर्थ । जिन्होंने न केवल अपनेको पहचाना है, अपितु वैसे पुरुषोंसे सम्पर्क स्थापित किया है और साधन भी वैसे ही जुटाये हैं, वे मात्र जीवन शुद्धिकी ओर ध्यान देते हैं । उनका समस्त श्रम और विचार अपने लिए होता है । वे यह स्पष्ट मानते हैं कि दूसरोंके लिए न तो मैं कुछ कर सकता हूँ और न दूसरे ही मेरे लिए कुछ कर सकते हैं । लोकमें जो भी उपकार व्यवहार दिखाई देता है वह निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका फल है । उसके आधारपर अपने में अन्य कर्तृत्वका आरोप करना मिथ्या है और अन्य में अपने कर्तृत्वका आरोप करना भी मिथ्या है | किन्तु जिन्होंने अपनेको पहचाना नहीं है, उनकी स्थिति इससे ठीक विपरीत है । शास्त्रोंमें इस प्रवृत्तिका कारण मिथ्यात्व परिणाम बतलाया गया है। जीवमें होता तो है यह परिणाम नैमित्तिक, किन्तु सद्भाव रहने तक अनेक प्रकारकी विपरीतताएँ जन्म लेती रहती हैं । ऐसे व्यक्तिकी, जो मिथ्यात्वरूप परिणामके आधीन है, बुद्धि ठिकाने लाना बड़ा ही कठिन काम है । एक मात्र काललब्धि हो इसकी प्रयोजक मानी गयी है । कालfor rtant अपनी योग्यता है । प्रत्येक वस्तुको जब जैसी योग्यता होती है, उसीके अनुसार कार्य होता है । यह सोचना कि हम कभी भी कोई कार्य कर सकते हैं निरा मिथ्या यह मिथ्यात्व जब तक जीवनमें घर किये हुए है, तबतक उद्धार होना असम्भव | कभी-कभी यह होता है कि संसारी जीव इस यथार्थताको जानता है, पर जीवनमें इस तत्त्वज्ञानके न उतरनेके कारण वह मूढ़ ही बना रहता है। मुख्यतया प्रत्येक प्राणीको अपने जीवनकी गाँठ खोलनी है । लौकिक जीवनका अर्थ है बाहरकी ओर देखना और आध्यात्मिक जीवनका अर्थ है भीतरकी ओर देखना । अभी तक यह प्राणी अपने लिए घर, स्त्री, धन आदिका संग्रह करता रहा है, और जब जो पर्याय मिली उसीको अपनी मानता रहा है । यह इसका बाहरी जीवन है । इस बाहरी जीवनका त्यागकर इसे वह वस्तु प्राप्त करनी है जो इसकी अपनी है और जिससे इसकी स्वतन्त्र प्राप्तिका मार्ग प्रशस्त बनता है । जीवनमें सम्यग्दर्शनका महत्व इसी दृष्टिसे माना गया है। यह वह शक्ति है, जिससे जीवनकी गाँठ खोलनेमें सहायता मिलती है ।
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यों तो इसकी प्राप्ति चारों गतिके जीवों को होती है, पर जो असंज्ञी हैं उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती । संज्ञियों में भी इसकी प्राप्ति उन्होंको होती है जिन्होंने व्यक्तिस्वातन्त्र्य के आधारपर स्वावलम्बनको अपने जीवनमें उतारनेका निर्णय किया है फिर चाहे भले ही वे वर्तमानमें परावलंबिनी वृत्तिका रंचमात्र भी
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