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साधु और उनकी चर्या
मोक्षमार्गमें आचार्य परम्परासे प्राप्त सम्यक् श्रुतकी प्रतिष्ठा सर्वोपरि है । जो साधु अपने मनरूपी मर्कटको अपने वशमें रखना चाहता है, उसे अपने चित्तको सम्यक् श्रुतके अभ्यासमें नियमसे लगाना चाहिए । श्रुतस्कन्ध हरे भरे, फूल-पत्तोंसे लदे हुए एक वृक्ष के समान है । जैसे वृक्ष में अनेक शाखा-उपशाखाएँ होती हैं, फूल - फल होते हैं, वैसे ही श्रुत भी अनेकान्त स्वरूप पदार्थको नय उपयनका आश्रय लेकर व्याख्या करनेमें प्रवीण है (आत्मा०, १६९ ) । यह हम श्रुतके बलसे ही जानते हैं कि जो वस्तु एक अपेक्षासे तत्स्वरूप है वही वस्तु दूसरी अपेक्षासे अतत्स्वरूप भी है । यह विश्व अनादि-अनन्त भी है यह हम इसीसे समझते हैं ( वही १७० ) । न कोई वस्तु सर्वथा स्थायी है और न सर्वथा क्षणविनाशीक ही है (वही, १७१) । किन्तु एक ही समय में वह उत्पाद व्यय और ध्रौव्यस्वरूप त्रयात्मक सिद्ध होती है (वही, १७१) । इस प्रकार विश्व में जितने भी पदार्थ हैं उनके सामान्य स्वरूपके निर्णय करनेमें सम्यक् श्रुतकी जितनी उपयोगिता है, प्रत्येक पदार्थके असाधारण स्वरूपके निर्णय करनेमें भी श्रुतकी उतनी ही उपयोगिता है । यह भी हम श्रुतसे ही जानते हैं कि प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वभाव है, इसलिए स्वभाव से च्युत न होकर उसमें रमना ही उसकी प्राप्ति है और वही उसका मोक्ष है (वही, १७४) ।
इस समय रयणसार हमारे सामने है । उसमें प्रक्षिप्त गाथाओंको चुन-चुनकर यदि अलग कर दिया तो उसे भी आचार्य कुन्दकुन्दके आगमानुसारी रचनाओंमें वही स्थान प्राप्त है, जो स्थान समयप्राभृत और प्रवचनसार आदिका स्वीकार किया गया है । उसमें श्रावक और साधुके मुख्य कार्योंका निर्देश करते हुए लिखा है कि जैसे श्रावकधर्म में दान और पूजा मुख्य हैं, इनके बिना वह श्रावक नहीं हो सकता । वैसे ही मुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन —ये दो कार्य मुख्य । इनके बिना मुनि मुनि नहीं ।" यही कारण है कि प्रवचनसारमें आचार्य कुन्दकुद साधुको आगमचक्षु स्वीकार करते हुए (वही, २३४) कहते हैं कि नाना प्रकारके गुण-पर्यायोंसे युक्त जितने भी पदार्थ हैं वे सब आगमसिद्ध हैं, ऐसा जो जानते हैं और अनुभवते हैं, वस्तुतः वे ही साधुपदसे अलंकृत सच्चे साधु हैं वही, २३५ ) । कारण कि जिनको आगमके अनुसार जीवादि पदार्थोंमें श्रद्धा नहीं है वे बाह्यमें साधु होकर भी सिद्धिको प्राप्त करनेके अधिकारी नहीं होते, यह स्पष्ट है (वही, २३७) ।
मोक्षमार्ग में आगम सर्वोपरि है । उसके हार्दको समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी मोक्षमार्गके प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शनको भी प्राप्त नहीं कर सकता । ग्रन्थकारने सम्यग्दर्शनके जिन दस भेदोंका ग्रन्थके प्रारम्भमें उल्लेख किया है उनमेंसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन तो सकल श्रुतधर श्रुतकेवली के ही होता है । इससे ही उसकी प्रारम्भमें श्रुताधारता स्पष्ट हो जाती है । परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन मुख्यतया केवली के माना गया है सो वे तो श्रुतके जनक ही हैं । जिससे यह सहज ही ध्वनित होता है कि जो श्रुतके अध्ययन मननपूर्वक सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है, वही समग्रभावसे उपदेष्टा हो सकता है । अब रहे सम्यग्दर्शन के शेष आठ भेद सो उनकी प्राप्तिके मूलमें भी किसी न किसी रूपमें श्रुतके अभ्यासकी सर्वोपरिता स्वीकार की गई है । वह भी स्वयं
१. दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ।
झाणाज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ।। रयग०, गा० १०॥
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