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चतुर्थखण्ड १५७ की स्वीकृतिका सबसे बड़ा प्रमाणपत्र है। यही कारण है कि व्रती होनेके बाद किसी भी मनुष्यको ऐसे सामाजिक कार्यों से जुदा रहनेके लिए कहा गया है।
जैसा कि हम देखते हैं कि एक जीवन संशोधनके मार्ग में लगा रहता है और दूसरा चोरी जारीमें समय बिताता है । क्या चोरी जारी करने वाला व्यक्ति उस दुनियासे बाहर निवास करता है जहाँ गला फाड़-फाड़कर व्यक्ति के जीवनके सुधारकी बात कहो जाती है। उसके वहीं रहते हुए और ऐसे उपदेशोंके सुनते हुए भी उसके इस तत्त्वको आचरणमें लानेकी रुचि क्यों नहीं होती है ? सम्यग्दृष्टि इसका कारण जानता है। इसलिए उसे न तो मरणके कारण उपस्थित होनेपर विवाद होता है और न जोवनके कारण उपस्थित होनेपर हर्ष होता है। उसका जीवन निर्भय होता है। भयका कारण कर्म रहते हुए भी उसकी निर्भय वृत्तिमें अन्तर नहीं आने पाता ।
सम्यग्दर्शन व्यक्ति स्वातंत्र्यको प्रतिष्ठित करनेका सर्वोत्तम साधन है । इसका आध्यात्मिक रहस्य यहीं से समझ में आता है, इसलिए उसकी वृत्ति में अन्यकी वांछा व विचिकित्साको रंचमात्र भी स्थान नहीं मिलता। वह यह भी मानता है कि दूसरे पदार्थ मेरा हिताहित करनेकी सामर्थ्य रखते हैं, इस भावनासे उनका आदर-सत्कार करना मूढ़ता है। उसका जीवन एकमात्र स्वावलम्बनकी ओर प्रवाहित होने लगता है । वह किसीकी कमजोरीको जीवनका अवश्यम्भावी परिणाम जानकर उसकी उपेक्षा करता है। वह रागादिको विकारीभाव जान उनसे हटकर अपने स्वरूपमें स्थित होना ही प्रशस्त मानता है । उसके विकल्पमें राग नहीं आता यह बात नहीं है, फिर भी वह अपने उपयोगको स्वभावकी ओर ले जानेका प्रयत्न करता है और जहाँ तक बनता है इसी वृत्तिका ख्यापन करता रहता है। तस्व निर्णयका यह अवश्यम्भावी परिणाम है, इसलिए ये गुण सम्यग्दर्शनके साथ नियमसे प्रकट होते हैं । इसीसे रत्नकरण्डकमें कहा हैनांगहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ||
वह
दर्शन दर्शन नहीं जिसके होनेपर ये गुण प्रकाशमें नहीं आते, ऐसा दर्शन संसार- परम्पराका छेदन करने में समर्थ नहीं होता, क्योंकि यह स्पष्ट है कि जो मन्त्र परिपूर्ण होता है वही विषवेदनाको दूर कर सकता है, अन्य नहीं ।
कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य की बुद्धि पन्थके व्यामोहमें पड़कर जीवन सम्बन्धी कार्यों में विमुख होने लगती है। पम्योंका निर्माण क्यों होता है यह इतिहासकी वस्तु हो सकती है, पर एक बात स्पष्ट है कि पन्ध स्वयं धर्म नहीं है। उन्हें धर्मका मार्ग मानना भी ठीक नहीं है। इनमें ऐसी अनेक बातें आ मिलती हैं जिनका आग्रह बढ़ जानेसे मनुष्य बहुत दूर भटक जाता है। मनुष्य बहुत दूर भटक जाता है । उस समय प्रत्येक मनुष्यका ध्यान धर्मकी ओर न जाकर पन्थ रक्षाकी ओर विशेष रूपसे जाने लगता है । हिन्दुओंमें चोटी और जनेऊका आग्रह, मुसलमानों में दाड़ी और खतनाका आग्रह तथा सिखोंमें केशरक्षा, कंघी और कृपाणका आग्रह इसी वृत्तिका परिणाम है | पन्थ मात्र बाहर की ओर देखता है। वह न केवल मनुष्यको अन्धा बनाता है, अपितु उसे धर्म पर संगठित रूपसे आक्रमण करनेके लिए उत्साहित भी करता है। जीवनमें विकारको समझकर उससे छुटकारा पाने के लिए दृढतर प्रयत्न करना ही धर्म है। इसका कार्यक्रम बहुत ही सीधा-सादा है। इसमें आडम्बर को स्थान नहीं । चोटी रखने या जनेऊ के पहिननेसे विकारका अभाव नहीं हो सकता और न ही ऐसा नहीं करनेसे विकारको प्रश्रय ही मिल सकता है । उसके त्यागके लिए आत्माका संशोधन करना होगा । विश्व क्या है और उसमें आत्माका स्थान क्या है इसका निर्देश हम पहले ही कर आये हैं । हमें अपने
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