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दान
दान इस शब्दकी व्याख्या जितनी सरल है उतनी कठिन भी है। इसका कारण प्रत्यक्ष दान करते समय हम व्यवहारमें उसके महत्त्वको भूल जाते हैं । जहाँ कर्तृत्व गुण में अहंपना उत्पन्न होता है, वहीं पर मनुष्यको किसी भी कार्य के साथ अपने नामादिकके जोड़नेकी अभिलाषा उत्पन्न होती है, वहीं पर वह उस कार्यके साथ अपने स्वामित्वक प्रकट करनेकी खटपट करता है। इसके विपरीत जब कोई उदात्तभावसे प्रेरित होकर किसी प्रकारका कार्य करता है, वहाँ पर दुसरेको यह जानना भी कठिन हो जाता है कि इसका कर्ता कौन है । किस भावनासे प्रेरित होकर इसने यह कार्य किया है। अति प्राचीन प्रतिमा और शास्त्रोंके देखनेसे हमारे इस अभिप्रायकी पुष्टि होती है।
भगवान् महावीर स्वामीके मोक्ष जानेके आरंभ कालमें हमारे साधु और श्रावक वर्गमें व्यक्तिगत कर्तृत्वसामर्थ्य रहते हुए भी बहजनके कल्याणके लिये उनका उदात्त गुण ही काम करता था। उनमें मायाममता कुछ भी न होकर वे लोककल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर ही प्रत्येक कार्य करते थे । यही कारण है कि आज हमें उदात्त कृतियोंके कर्ताके अन्वेषण के लिये सबसे अधिक इतिहास संशोधनका काम करना पड़ता है, फिर भी हम उन महात्माओंके संबंध में पूर्ण परिचित नहीं हो सकते हैं। स्वामी समन्तभद्रको भस्मकव्याधिका शमन बनारसमें हुआ या कांचीपुरमें, यह आज उनके उपलब्ध जीवन चरित्र और संशोधित इतिहाससे विवादस्थ ही है। परन्तु आज समाजसुधार और धर्मसेवाका क्षुद्र काम करनेवाला भी अपने इतिहासको स्वयं निर्माण करता हुआ नजर आता है। उसकी खटपट है कि मैं भविष्यमें एक सबसे बड़ा समाजसुधारक और धर्मधुरीण समझा जाऊं। लोकमें उज्ज्वल इतिहास निर्माण करना मनुष्यमात्रका काम है। जीवन लीलाके नष्ट हो जानेपर भी कृति और कीर्ति अमर रहना मनुष्यमात्रके जीवनका सार है, परन्तु यह उनके नामसे न होकर उनके कार्योंसे होना चाहिये । कीतिका गणधर्म निर्मल और उज्ज्वल होनेके कारण उसमें धब्बा थोड़ा भी नहीं खपता है । वह अपने कर्ताकी सहृदयता अथवा नीरसताको उसी समय प्रकट कर देती है। अंतस्थहेतु जितना अधिक मनुष्यके कार्य प्रकट नहीं करते हैं जितना कि उसका व्यवहार। यह बात कर्ताके निकटवर्ती जन ही जानते हैं । दूरसे पहाड़ तो सुन्दर दिखता है। परन्तु उस पहाड़ पर आरोहण करनेवालेको वह कुछ हिमाद्रि नहीं हो जाता है । उसके लिये तो वह काले और निम्नोन्नत पहाड़ियोंका ढिग ही बना रहता है ।
मझे एक गजरथ चलाने वालेका स्मरण है। सुदूरवर्ती लोगोंके लिए यदि वह महत पुण्यका कारण धार्मिक कार्य था तो निकटवर्ती लोगोंके लिये वह किसी महत्पापका आवरण या प्रायश्चित्त था। प्रायश्चित्त शब्दका व्यवहार मैंने गौणरूपसे इसलिये किया है कि वह अंतरंग विरागतासे प्रेरित होकर किया जाता है। उसमें आगे वैसे पापकी संभावना नहीं रहती है।
मुझे एक ऐसे दृष्टांतका भी स्मरण है कि किन्हीं दो व्यक्तियोंमें किसी एक धार्मिक कार्यमें मतभेद उठ खड़ा हुआ था। उस झगड़ेका निकाल एक पक्षमें होनेपर विजेता विरुद्ध बाजू के लोगोंसे कहता था कि-ये लोहेके चने हैं। इनको चबानेवालेके दाँत ही टूटते हैं। फल यह हुआ कि उस कार्यके विध्वंसमें ही दोनोंको संतोष करना पड़ा।
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