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१४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
द्वारा ग्रहण किये हये पदार्थमें ही होता है, इसलिये यह जीव अपरिपक्व अवस्थामें अपने जीवनका ध्येय किसी भी वस्तुको बना लेता है, ऐसे जीवके अपने जीवनका एक भी ध्येय स्थिर नहीं रहता है, इसीलिये यह अवस्था इस जीवके कल्याण के लिये सहायक न होकर उसके लिये बाधक ही सिद्ध होती है। कारण इस अपरिपक्व
थामें यह जीव विकल्प छोड़नेकी इच्छा तो करता है, परन्तु वह छूटता नहीं है। परन्तु विकल्पसे रहित हुये बिना पूर्णशांति अथवा सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती है।
इसके साथ दूसरी बात यह है कि यदि पूर्ण शान्तिकी प्राप्तिके लिये यह प्राणी समस्त विकल्पोंको एकदम छोड़नेका भी प्रयत्न करे तो वह असंभव है। पूर्ण शान्ति केवल नासाग्रदृष्टि, निर्जनस्थान और घरकुटुम्ब आदिके त्यागमें नहीं है । वह तो आत्मपरिणाम हैं, इसलिये इन्द्रियोंका निरोध और रागद्वेष रहित मनकी स्थिरता होनेपर ही उसकी प्राप्ति हो सकती है ।
___इस तरह जबकि संसारके बंधनों अथवा दुःखसे छूटनेके लिये इसका ध्येय अथवा सच्चा आदर्श निविकल्पदशा किंवा पूर्णशांति है तो इसे उसकी प्राप्ति करना ही चाहिए। उसकी प्राप्तिके दो मार्ग सम्भव हैं। पहिला विकल्पके कारणरूप बाह्य वस्तुओंका त्याग करके धीरे-धीरे आत्मवतिको अपनी आत्मामें स्थिर करना
और दूसरा विकल्परूप अवस्थामें रह कर भी अथवा विकल्प अवस्थाके कारणरूप अवस्थामें रह कर भी अथवा विकल्प अवस्थाके कारणरूप बाह्य पदार्थ और शरीर आदिके ऊपर प्रेम करते हुए भी धीरे-धीरे उनका त्याग करना-इन दोनों अवस्थाओंमें निर्विकल्प अवस्था उत्पन्न करनेवाली सामग्रीमें मनको स्थिर करना अत्यन्त आवश्यक है। इस समय जो पहिले मार्गका आश्रय कर चुके हैं, उन्होंने तो बाह्य-क्रियाओंको व्यर्थका महत्व न देकर राग, द्वेष और मोहसे रहित शुद्ध आत्मपरिणतिको अपने आत्मामें स्थिर करना चाहिए परन्तु हम पहले मार्गसे अभी दूर हैं और दूसरे मार्गमें भी हमारी स्थिरता निर्विकल्प अवस्थाको उत्पन्न करनेवाली सामग्रीके बिना नहीं हो सकती है, इसलिए अपने लिये निर्विकल्प अवस्थाको उत्पन्न करनेवाली अथवा शान्तिकी सामग्री एकत्र करना चाहिये।
सामग्रीके सम्बन्धमें जिसने उस निर्विकल्प अवस्थाको प्राप्त कर लिया हो, ध्येयकी सिद्धिके लिए वही अपनी पूजाकी उपयुक्त सामग्री समझना चाहिए । परन्तु आज अपने लिए ऐसे पवित्र आत्माके साक्षात् दर्शन नहीं होते हैं, इसलिए हम और आप उस परमात्माकी आदर्शरूपसे स्थापना करते है। परन्तु उस स्थापनाको साक्षात् परमात्मा न समझकर उस स्थापनामें अपने अन्तर्चक्षुओं के द्वारा ध्यान करना चाहिए । ऐसा करनेसे यद्यपि स्थापनामें परमात्माके दर्शन नहीं होंगे तो भी उस निमित्तसे अपनी अन्तरात्मामें परमात्मज्योति जागृत होगी । इससे यह निष्कर्ष निकल आता है कि स्थापनापूजा भी परमात्माकी पूजा है । कारण, परमात्मा साक्षात् रहो अथवा परोक्ष रहो, अपनेको जब भी सबसे पहिले परमात्माके दर्शन होंगे तब अपनी अन्तरात्मामें ही होंगे अर्थात् ध्यान द्वारा यह आत्मा स्वयं अपनेमें ही परमात्मदशाका अनुभव करेगा। उसे कर्मके निमित्तसे होनेवाला विकारीभाव अलग अनुभवमें आवेगा। और शुद्ध चिद्रप आत्मा अलग अनुभवमें आवेगा। इस अनुभवके माहात्म्यसे उसकी यह विवेकदृष्टि अपने आप जागृत हो जाती है कि मैं स्वयं जन्म आदि रोगोंसे रहित हूँ, ज्ञानधन हूँ, वीतराग हूँ, चिन्मय परम सुखका भोक्ता हूँ। यह दिखनेवाली विकारी अवस्था मेरी न होकर उपाधिजन्य है । जब तक मैं इसे अपनी समझता हूँ, तभी तक यह मुझसे सम्बन्ध किये हए हैं । इस विकारी अवस्था मेंसे ममत्वभावकी कमी होते ही वह अपने आप मुझसे दूर हो जावेगी और मेरा यह स्वभावसे शुद्ध, परन्तु उपाधिसे सम्बन्धको प्राप्त, अतएव अशुद्ध-आत्मा अपनेमें ही परमात्मदशाका अनुभव करने लगेगा।
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