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देव-पूजा
यह संसारी जीव आत्मकल्याणका इच्छुक है । परन्तु जब तक इसे पूर्ण सुखकी प्राप्ति नहीं हुई है, पराधीन सुखको हो यह आत्म-सुख मानता है। इन्द्रियद्वारा पदार्थ के ग्रहण करने पर तज्जन्य अनुभव करनेके लिये ही यह धड़पड़ करता है तब तक यह आत्मकल्याणका मार्ग चूका हुआ है-इनमें कुछ भी संदेह नहीं है, कारण इच्छाके अनुकूल इन्द्रियों के द्वारा निरन्तर पदार्थोका ग्रहण होता रहेगा अथवा जिस पदार्थको आज यह अपने लिये हितकर समझता है उसमें इसकी सर्वदा उसी प्रकारकी कल्पना बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है। हम देखते हैं कि इस समय जो पदार्थ हमें हितकर मालूम पड़ता है, इच्छा बदलनेपर उसी पदार्थकी प्राप्तिके लिये हमारी अरुचि उत्पन्न हो जाती है। आज जो पदार्थ हमें तिरस्करणीय मालूम पड़ता है अतएव उसे हम अपनेसे बिल्कुल दूर कर देते हैं। दूसरे दिन उसी पदार्थकी प्राप्तिके लिये हम अत्यन्त व्याकुल हो उठते हैं । इतना ही नहीं, किन्तु ज्यों-ज्यों वह पदार्थ हमसे दूर होता जाता हैं, त्यों-त्यों उसकी प्राप्तिके लिये हमारी इच्छा और अधिक तीव्र होती जाती है और अन्तमें उसकी प्राप्ति न होने पर हमारी वही इच्छा दुःखरूपमें परिणत होकर अनुकूल दुसरे पदार्थोकी प्राप्ति में भी अरुचिको उत्पन्न करने लगती है। इस तरह यह निश्चित हो जाता है कि सच्चा सुख इन्द्रियों के द्वारा परवस्तुके ग्रहण करने में न होकर कोई विलक्षण ही वस्तु है।
फिर वह सुख क्या वस्तु है, यह प्रश्न हमारे सामने एकदम खड़ा रहता है । इस प्रश्नके उत्तरके लिए हमें दःख और सखके स्वरूपका विचार करना होगा। उनके स्वरूपका विचार करने पर यह स्पष पड़ जाता है कि इच्छाओंके ऊपर इच्छाओंका उत्पन्न होना ही दुःख है और उन इच्छाओंका अभाव करना ही सुख है इस तरह दुःख और सुखके स्वरूपका निर्णय हो जाने पर हमें यदि सुखकी प्राप्ति करना है तो उसकी प्राप्ति इच्छाओं के अनुकूल विषयोंको जुटानेमें न होकर इच्छाओंके सर्वथा अभाव करने पर ही हो सकेगी यह हमें और समझ लेना चाहिये । कारण, इच्छाके अनुकूल उसका खाद्य देनेसे यद्यपि एक इच्छा शान्त हो जाती है, परन्तु उसके स्थानमें उसी समय दूसरी इच्छा खड़ी रहती है। इस तरह हम निरन्तर इच्छाओंके अभावका प्रयत्न करते हैं और निरन्तर इच्छायें उत्पन्न होती रहती हैं। इसका कारण-इच्छाओंके अभाव
मार्ग चुका हुआ है, यही समझना चाहिए । इच्छाओं के अभाव करनेका सबसे उत्तम उपाय यदि है तो वह यही हो सकता है कि हम इच्छाओंकी पुष्टि न करके उनके नाशका प्रयत्न करें।
यदि हम इच्छाओंका सर्वथा नाश कर सके तो इच्छाजन्य दुःखका अभाव होकर परम वितृष्णरूप सुख की हमारी आत्मामें उत्पत्ति होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं और उस वितृष्णरूप सुखका विरोधी कोई कारण न रहनेसे वह सुख स्थाई और अनन्तरूप होगा।
इस तरह सुखके स्वरूपका पता लग जाने पर हमें उसके मार्गका भी पता लगाना ही होगा। कारण, बिना मार्गके उस निराकुलतारूप सुखकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है।
निराकुलतारूप सुखके मार्ग का निश्चय करते हुये वह निर्विकल्पदशाका ही पोषक होना चाहिये । कारण, जब तक अपनी आत्मामें विकल्प अवस्था है तब तक यह जीव अपना कल्याण नहीं कर सकता है। इसके लिये इसे सहायक आदर्शको अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु मानसिक विकल्प बहत करके इन्द्रियों के
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