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१३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इसके बाद मनुस्मृति काल आता है । मनुस्मृति ब्राह्मण धर्मका प्रमुख ग्रन्थ है । इसकी रचना मुख्यतया चार वर्णों के धर्म कर्त्तव्योंका कथन करनेके लिए की गई थी।
यहाँपर हम प्रसंगसे धर्मके सम्बन्धमें दो शब्द कह देना चाहते हैं । 'धर्म' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में व्यवहृत होता है-एक व्यक्तिके जीवन संशोधनके अर्थमें जिसे हम आत्मधर्म कहते हैं और दूसरा समाज कर्तव्यके अर्थमें । मनुस्मृतिकारने इन दोनों अर्थों में धर्म शब्दका उल्लेख किया है । वे समाज कर्त्तव्यको वर्णधर्म कहते हैं और दूसरेको सामान्य धर्म कहते हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों में धर्म पुरुषार्थसे वर्ण धर्म ही लिया गया है। उनके मतसे सामान्य धर्म अर्थात आत्मधर्मके अधिकारी सब मनुष्य है, किन्तु समाज कर्त्तव्य सबके जुदे-जुदे हैं । गीतामें 'स्वधर्मे निधनं श्रेय.'से इसी समाज धर्मका ग्रहण होता है। मनुस्मृतिकार ९वें अध्यायमें शूद्र वर्ण के कार्योंका निर्देश करते हुए कहते हैं
विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम् ।
शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नश्रेयसः परः ॥३३४।। वेदपाठी, गृहस्थ और यशस्वी विप्रोंकी सेवा करना यही शूद्रोंका परम धर्म है जो निश्रेयस का हेतु है । इसके आगे वे पुनः कहते हैं
शचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मूदुवागनहंकृत।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुतेः ॥३३५॥ पवित्र रहने वाला, अच्छी टहल करने वाला, धीमेसे बोलने वाला, अहंकारसे रहित और ब्राह्मण आदि तीन वर्षों के आश्रयमें रहने वाला शूद्र ही उत्तम जातिको प्राप्त होता है ।
इस तरह इन दोनों परम्पराओंके साहित्यका आलोडन करनेसे यह बात बहुत साफ हो जाती है कि शुद्र वर्ण का मुख्य कर्त्तव्य तीन वर्गों की सेवा करना मनुस्मृति की देन है। आदिपुराणमें यह बात मनुस्मृतिसे आई है । आदिपुराणमें जो शूद्रोंके स्पृश्य और अस्पृश्य-ये भेद किये गये है, वह भी मनुस्मृति व इतर ब्राह्मण ग्रन्थोंका अनुकरणमात्र है । यह इसीसे स्पष्ट है कि आदिपुराणके पहले अन्य किसी आचार्यने शूद्रोंके न तो कारु-अकारु और स्पृश्य-अस्पृश्य-ये भेद किये हैं और न उनका काम तीन वर्गों की सेवा करना ही बतलाया है। आदिपुराणकारको ऐसा क्यों करना पड़ा इसके लिए हमें भारतकी तात्कालिक और इससे पहलेकी परिस्थितिका अध्ययन करनेकी आवश्यकता है। इस समय भारतवर्ष में हिन्दुओं और मुसलमानोंका विरोध जिस स्तरपर चालू है ठीक वही स्थिति उस समय श्रमण-ब्राह्मणों की थी। उस समय श्रमणों और श्रमणोपासकोंको 'नंगा लुच्चा' कहकर अपमानित किया जाता था, उनके मंदिर ढाये जाते थे, मूत्तियोंके अंग भंगकर उन्हें विद्रूप बनाया जाता था, बौद्धोंको 'बुद्ध' शब्द द्वारा संबोधित किया जाता था और जैन-बौद्ध-साधुओंको अनेक प्रकारसे कष्ट दिये जाते थे। मीनाक्षी के मन्दिरमें अंकित चित्र आज भी हमें उन घटनाओंकी याद दिलाते हैं। ८-९वीं शताब्दिमें यह स्थिति इतनी असह्य हो गई थी जिसके परिणामस्वरूप बौद्धोंको तो यह देश ही छोड़ देना पड़ा था और जैनोंको तभी यहाँ रहने दिया गया था जब उन्होंने ब्राह्मणोंके सामने सामाजिक दृष्टिसे एक तरहसे आत्मसमर्पण कर दिया था। यह तो हम आगे चल कर बतलायेंगे कि आदिपुराणमें मनुस्मृतिसे कितना अधिक साम्य है । यहाँ केवल इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त है कि आदिपुराणमें शूद्र वर्णका जो सेवावृत्ति कार्य बतलाया गया है उसका श्रमण परम्परासे मेल नहीं खाता ।
इस प्रकार शूद्र वर्णका प्रधान कार्य क्या था और बादमें उनकी सामाजिक स्थिति में किस प्रकार परिवर्तन होता गया इसका संक्षेप में निर्देश किया।
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