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चतुर्थ खण्ड : १३५ ४. शूद्र वर्ण
चौथा कारण शिल्प है। गृह उद्योगमें इसका महत्त्व सर्वोपरि है। प्राचीनकालमें यह काम करने वाले मनुष्योंको ही शूद्र वर्णका कहा गया था इसमें सन्देह नहीं ।
किन्तु धीरे-धीरे यह स्थिति बदलती गई और आजीविकाके आधारसे अनेक जातियाँ बनने लगीं। समाजमें ऐसे मनुष्योंका एक स्वतंत्र वर्ग बना, जो नाच-गानसे अपनी आजीविका करने लगा। इसके बाद इस स्थितिमें और भी अनेक परिवर्तन हुए और अन्तमें उन मनुष्योंका एक वर्ग सामने आया, जिनका पेशा सेवावृत्ति करना रह गया। समाजमें ये स्थित्यन्तर कैसे हुए, इसके कारण अनेक हैं। किन्तु यहाँ हम उन कारणोंका विचार नहीं करेंगे; क्योंकि यह एक स्वतंत्र निबन्धका विषय है। तत्काल हमें यह देखना है कि शूद्रोंकी इस स्थितिके उत्पन्न करनेमें मुख्य कारण कौन है ?
यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि हमारे देशकी श्रमण और वैदिक-ये दो संस्कृतियाँ मख्य है, इसलिए शूद्रों की वर्तमान स्थितिके कारणोंकी छानबीन करनेके लिए इनके साहित्यका आलोडन करना आवश्यक हो जाता है। उसमें भी सर्वप्रथम प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्यको लीजिये । बौद्धोंके "धम्मपद" और जैनोंके "उत्तराध्ययन में समान रूपसे यह गाथा आती है
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥ इसमें चारों वर्णोकी स्थापनाका मुख्य आधार कर्म माना गया है ।
यद्यपि इससे इस बातपर प्रकाश नहीं पड़ता कि किस वर्णका कर्म क्या है ? फिर भी श्रमण संस्कृतिके अनुसार इन चार वर्णोकी स्थापनाका मुख्य आधार सामाजिक उच्चता और नीचता तथा जातिवाद नहीं है, इतना इससे स्पष्ट हो जाता है।
इन वर्णोका पृथक्-पृथक् कर्म क्या है इसकी विशद व्याख्या आचार्य जटासिंहनन्दिने अपने वरांगचरितमें की है। इसका उल्लेख हम पहले कर ही आये हैं । - जैन-परम्परामें इसके बाद आदिपुराणका काल आता है। आदिपुराणमें चार वर्णों के वे ही कार्य लिखे हैं, जिनका उल्लेख जटासिंहनन्दिने किया है। किन्तु शूद्रोंके कार्योंमें उसके कर्त्ताने एक नये कर्मका प्रवेश और किया है, जिसे उन्होंने न्यग्वृत्ति (सेवावृत्ति) शब्दसे सम्बोधित किया है। वे शूद्र वर्णके कार्यका शिल्पकर्मके रूपमें उल्लेख न कर उसके स्थानमें मुख्य रूपसे न्यग्वृत्ति शब्दका निर्देश करते हैं ।
यह तो श्रमण-परम्पराकी स्थिति है । अब थोड़ा वैदिक-परम्पराका आलोडन कीजिए ।
वैदिक-परम्परामें वेदोंका प्रथम स्थान है। उनमें ऋग्वेद पहला है । इसके पुरुषसूक्तमें सृष्टिके उत्पत्ति क्रमका निर्देश करते हुए लिखा है कि जिस विराट् पुरुषने नदी, तालाब, वृक्ष, लताएँ, पशु, देव और दानव बनाए, उसका ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय बाहु है, वैश्य जंघाएँ हैं और शूद्र दोनों पैर हैं ।
अथर्ववेदमें भी यह उल्लेख आता है, किन्तु वहाँ वैश्योंको जंघाओंकी उपमा न देकर उदरकी उपमा दी गई है। - वेदोंके बाद ब्राह्मण और उपनिषद् काल आता है; किन्तु वहाँ इनके कार्योंका अलगसे विचार नहीं किया गया है।
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