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विश्वशान्ति और अपरिग्रहवाद
अहिंसा और विश्व
___ शान्तिवादियोंके भारतमें दो दो सम्मेलन हुए-एक शान्ति निकेतनमें और दूसरा सेवाग्राममें । ये दोनों स्थान इस युगके दो महापुरुषोंकी साधनाभूमि रहे हैं। कवीन्द्र-रवीन्द्र और महात्मा गाँधीने अपने लोकोत्तर कार्यों द्वारा भारतका सिर तो विश्वमें ऊँचा किया ही पर विश्वको भी जीवन और जगत्के सम्बन्धमें नई दृष्टि दी । खास कर गाँधीजी की अहिंसाका मानव जाति पर अमिट प्रभाव पड़ा है । और अधिकांश विचारक अब यह मानने लगे हैं कि अहिंसाके द्वारा प्रत्येक मानवीय समस्याका शान्तिपूर्ण हल किया जा सकता है। अहिंसा एक विधायक शक्ति है और विश्वका विचारक बहुभाग उसके प्रयोग और परीक्षणमें लगा हआ है। यह होते हुए भी बहुतसे विचारकोंका अहिंसामें जरा भी विश्वास नहीं है । भारतने अहिंसक उपायोंसे जो स्वतन्त्रता प्राप्त की वह विश्व इतिहासकी अभूतपूर्व घटना है, पर उसका विश्वकी राजनीति पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितनी आशा की जाती थी । भारतको स्वतन्त्रता मिलनेके बाद जो घटनाएं घट रही हैं और जिस ढंगपर कल्पित तीसरे युद्धकी तैयारीमें विभिन्न देश लगे हुए हैं, उससे स्पष्ट है कि अहिंसाका ठीक मर्म अभी जनताके हृदयमें नहीं पैठ सका है। अन्तर्राष्ट्रीय दलबन्दी
वर्तमान विश्व दो बड़े गुटोंमें विभाजित है--एक अमेरिकन गुट जो पूंजीका प्रतिनिधि है और दूसरा रूस जो श्रमका प्रतिनिधि है । इसे श्रम और पूंजीकी प्रतिद्वन्द्वता कहना अधिक उपयुक्त होगा। जीवनमें विशेष स्थान पूँजीका है या श्रमका यही मुख्य विवादका विषय है। अमेरिकन गुट पूँजीको प्रथम स्थान देना चाहता है और रूस श्रमको, यही इन दोनोंके बीचका झगड़ा है । यह लड़ाई विश्वके कोने-कोने में फैलती जा रही है। अमेरिकाके पक्षमें विश्वकी अधिकतर सरकारें, पूँजीपति और वे साम्प्रदायिक संस्थाएँ हैं जिनका निर्माण और विकास मुख्यतया पूँजीवादी तत्त्वोंके आधार पर हुआ है। तथा रूसके पक्षमें किसान, मजदूर और मध्यम वर्गकी जनता है। अब तो कुछ देशोंकी सरकारें भी रूसका साथ देने लगी हैं। चीनके कम्यनिस्ट देश हो जानेके बाद तो रूसका बल विशेषरूपसे बढ़ा है । इस स्थितिको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उत्तरोतर पूँजीकी ताकत घटनेके साथ श्रमकी शक्ति बढ़ रही है। आम जनता पूँजीकी अपेक्षा श्रमको विशेष महत्त्व देने लगी है। पूँजीवादको हार
पिछला विश्वयुद्ध पूँजी और श्रमके बीच न हो सका। हिटलर रूस पर चढ़ाई करनेके बाद उसे यह रूप देना चाहता था, किन्तु उस समय ब्रिटेन और उसके साथी देशोंने इस ओर दुर्लक्ष्य किया, नहीं तो उस समय पूँजीके आगे श्रमको झुकना ही पड़ता। रूसको पंगु बनानेका वही समय था। उस समय ब्रिटेनके सामने झूठी प्रतिष्ठाका लोभ और उठती हुई नई ताकतका भय था, इसलिए उसने हिटलरका विश्वास न कर रूसका साथ देना ही उचित समझा। इससे जर्मनी हार तो गया पर इसे उसकी हार न मान कर पूंजीवादको ही हार कहनी पड़ती है। पूंजीवादकी यह ऐसी हार है जो सम्भवतः कभी भी जीतमें परिणत नहीं की जा सकती।
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