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११६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
कठिनता नहीं हो सकती है कि हमारे देशके पतन और परतन्त्रताका कारण अहिंसा न होकर कुछ देशद्रोही जयचन्द सरीखे मनुष्योंकी काली करतूत ही है । इस काम में संस्कृतिके संघर्ष और ईश्वरवादने भी बहुत कुछ मदद की है । जिस संस्कृति ने "मूर्ख यह प्राणी अपने सुख और दुःखका स्वामी न होकर उसके सुख और दुःखका स्वामित्व ईश्वरकी मर्जी के ऊपर है" इस सिद्धान्त की घोषणा को और संसारको उसीका पाठ पढ़ाया । लेखक महाशय उस संस्कृतिको तो आँखें मींचकर स्वीकार करते हैं परन्तु विकारी भावोंका विश्लेषण करके तात्त्विक आत्मवृत्तिकी द्योतक स्वतन्त्रारूप अहिंसाके ऊपर इस पापके घड़ेके फोड़नेका व्यर्थ ही असफल प्रयत्न करते हैं । फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्मकी अहिंसा यदि उसका पालन करनेवाला विजेता हो तभी उसको अहिंसककी कोटिमें स्वीकार करती है उसे परचक्रका आक्रमण थोड़ा भी सहन नहीं होता है । परचक्रका अतत्व और अहिंसकभाव इन दोनों विरोधी तत्त्वोंके लिये जैनधर्म में प्रतिपादनकी हुई अहिंसा में स्थान नहीं है जो कायर होकर दूसरेकी स्वाधीनता स्वीकार करता है वह अपने विरोधी शत्रुओं को कैसे जीत सकता है, इसके लिए तो उसे पूर्ण स्वतन्त्रताका भोक्ता ही होना पड़ेगा । हाँ ! यह सत्य है कि जैनधर्मकी असा शत्रुके ऊपर विजय तामसिक वृत्तिसे न स्वीकार करके पूर्ण सात्त्विक वृति से संपादन करनेका पाठ पढ़ाती है । उसका यह सबसे प्रथम पाठ है कि तुम अपने विकारी स्वार्थोकी पुष्टिके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण न करके विकारी स्वार्थोके नाश करनेके लिए दूसरोंके ऊपर आक्रमण करके विजय संपादन करो । ऐसा करते हुए कभी-कभी अपने आत्मीयजनोंके साथ भी विरोध करना पड़ता है, परन्तु वहाँपर भी हमें अपने आत्मीयजनोंको भूलकर विकारी भावोंको ही अपने विरोधका लक्ष्य बनाना चाहिए। इस तरह यदि पूर्ण सात्विकभावों से विरोधी शक्ति के साथ संघर्ष करते हुए हम व्यवहारी जगत्में एक बार असफल हुए भी दीखें तो भी हमारी उस असफलतामें ही सफलताका तत्त्व छिपा हुआ है, यह बात संसारके किसी भी न्याय्ययुद्ध सिद्धकी जा सकती है ।
जैनधर्मकी अहिंसाकी इस प्रकार तात्त्विक भूमिका होनेपर भी हमें संत सा० के इस आक्षेपका कि "जैनधर्मकी अहिंसा देशकी पराधीनताका कारण हुई" उत्तर उसके व्यवहारी रूपको सामने रख कर दे देना और भी उचित प्रतीत होता है । कारण किसी भी सिद्धान्तके कितने ही सुन्दर होनेपर उसके अनुयायी यदि उसका उचित पालन न करके विकृत तत्त्वको स्वीकार करलें तो उससे लाभके स्थानमें हानिकी अधिक संभावना रहती है । परन्तु इस प्रश्नके उत्तरके लिए हमें अतीत भारतको सम्पन्न भारत और आपत्तिग्रस्त भारत - इस प्रकार दो अवस्थाओं में विभाजित करना होगा । सम्पन्न भारत से मतलब स्वशासित भारत से है और आपत्तिग्रस्त भारत से मतलब परशासित अथवा दूसरे देशों में उत्पन्न हुई संस्कृतिके द्वारा शासित भारत मे है । इनमे से भारत जिस समय स्वशासित था उस समय हिन्दुस्तानमें उत्पन्न हुई दूसरी संस्कृतियाँ इस देशके वैभवको बढ़ाने में जितनी कारण हुई उससे कहीं अधिक जैन संस्कृति इस देशकी अभिवृद्धिका कारण हुई । स्वशासित भारतमें दूसरी संस्कृतियोंके लांछनरूप कारनामें जिस प्रकार प्रकट किये जा सकते हैं वह बात जैन संस्कृति में ढूंढ़नेको भी नहीं मिल सकती । इसकी आध्यात्मिक भूमिका स्वतन्त्र होते हुए भी अपनी संस्कृति की रक्षाके लिये इसने दूसरी संस्कृतियोंके ऊपर कभी भी आक्रमण नहीं किया । परन्तु यह बात दूसरोंके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती है इसके लिये साक्षी इतिहास है । रह गई आपत्ति ग्रस्त भारतकी बात सो हमारे देशके ऊपर आपत्ति कैसे आई उसमें हाथ किसका था इस बातका यदि सन्त सा० विचार करें तो उन्हें जैनधर्मकी अहिंसाके ऊपर आक्षेप करनेके लिये स्थान ही नहीं रहता है । आज ऐसे भी ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि जैनेतर संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी मनुष्य जिस समय हिन्दुत्वकी विरोधी संस्कृतिका सब तरहसे सहायता
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