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चतुर्थखण्ड: ११७ कर रहे थे उसी समय जैन संस्कृतिमें उत्पन्न हुए और उसीके अभिमानी नरश्रेष्ठ केवल जैन संस्कृति के लिये नहीं किन्तु अपनी पड़ोसिनी दूसरी संस्कृतियोंकी रक्षाके लिये भी सहायक हुए। सहायक हुए इतना ही नहीं उनके सत्प्रयत्न और सर्वस्व अर्पण करनेसे उनकी रक्षा हुई । रह गई बौद्धोंके अहिंसाके ऊपर आक्षेप करने की बात सो इसका बौद्धधर्मनुयायी जितना उचित उत्तर दे सकते हैं उतना यद्यपि में नहीं दे सकता है। फिर भी अपने देशकी पूर्व परंपराका अध्ययन करनेसे इतना हम भी लिख सकते हैं कि हमारे देश में एक ऐसा वर्ग था जो बौद्ध संस्कृति नाश करनेके लिये जी जानसे प्रयत्न करता रहा । जिससे देशकी संपूर्ण शक्ति गृहकलहमें वट जानेके कारण ही भारतको परतन्त्रताके दिन देखने पड़े । रह गई उनकी अहिंसासे कायरताकी बात सो इसके लिये हम सन्त सा०को जापानकी याद दिला देना ही पर्याप्त समझते हैं। संभव है सन्व सा० जापानके बढ़ते हुए वैभव और कीर्तिका स्मरण करके व्यर्थ ही अहिंसाके ऊपर संस्कृति भेदसे उत्पन्न हुई अपनी मानसिक कलुपताको नहीं प्रकट करेंगे ।
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