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१२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
रखनेवाले अधिकतर दर्शन यह मानने के लिये कभी भी तैयार नहीं हैं कि व्यक्ति स्वतन्त्र अपनेमें कुछ है या वह पथक होकर भी अपने जीवनके लिये स्वयं उत्तरदायी है। भारतवर्षमें इन दर्शनोंका बड़ा विकास हुआ है और दूसरे राष्ट्रोंपर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा है। समस्त व्यवस्थाएँ और उनके दुष्परिणाम इन दर्शनोंके प्रयोगोंका ही फल हैं ।
किन्तु दूसरी ओर ऐसे दर्शनका भी उदय हआ है जिसने विश्वकी समस्त समस्याओंको व्यक्तिस्वातन्त्र्यके आवारपर सुलझानेका प्रयत्न किया है । इसकी घोषणा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमेंसे न तो कुछ निकाल ही सकता है और न उसमें कुछ मिला ही सकता है। किन्तु जिस कालमें जिस द्रव्यकी जैसी योग्यता होती है तदनुरूप उसका परिणमन होता है। जीवनमें निमित्तका स्थान है अवश्य, पर वह व्यक्तिको स्वतंत्रताको अपहरण करनेमें असमर्थ है।
व्यक्तिको स्वतन्त्रता इस दर्शनकी रीढ़ है। यह दर्शन मानवीय कल्पना और उसके स्वार्थोंकी अपेक्षा विश्व के तथ्यपूर्ण जीवनक्रमको ध्यानमें रखकर विश्वका अवलोकन करता है। यद्यपि अब तक मानव जगतमें इसके उक्त मौलिक सिद्धान्तकी अवहेलना होती आई है, पर इससे उसकी उपयोगितामें अन्तर नहीं आता।
इसने जगत्की समस्त समस्याओंका मूल कारण, व्यक्तिकी कमजोरी बतलाया है और वह कमजोरी है व्यक्तिको मर्छा, इसलिये यह उन समस्याओं के हलके लिए बाह्य व्यवस्थाओंकी अपेक्षा व्यक्ति की और राष्ट्रकी अन्तःशुद्धिपर अधिक जोर देता है। व्यक्तिस्वातन्त्र्य और अपरिग्रहवाद
जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि विश्व में जड़-चेतन जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वतन्त्र हैं, कोई किसी के आधीन नहीं हैं। फिर भी यह प्राणी मूविश अन्य बाह्य-साधनोंका संग्रह करता है और उनका अपनेको स्वामी मानता है या उनमें इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी-दुःखी होता है। किन्तु व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्तके साथ इस भावनाका कोई मेल नहीं बैठता। इन दोनोंमें पूर्व-पश्चिमका अन्तर है। जिसने व्यक्तिस्वातन्त्र्यके सिद्धान्तको अपने जीवन में स्थान दिया है वह यह अनुभव करता है कि ये धन, पुत्र, स्त्री, मकान और शरीर आदि भिन्न हैं। इनका परिग्रह मेरा स्वरूप नहीं है । मेरा स्वरूप तो मात्र जानना देखना है। इसलिए वह मानता है कि जो व्यक्ति या राष्ट्र इन्हें अपनी उन्नतिका साधन मानकर इनका अधिकाधिक संग्रह करना चाहता है वह न तो कभी सुखी हुआ है और न हो सकता है । इनसे सुख मिलता है ऐसा मानना भी भ्रम है और इनमें सुख है ऐसा मानना भी भ्रम है। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि सुख आत्माका स्वभाव है। उसकी प्राप्ति के लिये अपनी ओर ही देखना होगा, इन बाह्यसाधनोंकी ओर नहीं । क्योंकि इनका त्याग किये बिना व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।
श्रमण भगवान् महावीरने अने जीवनके विविध प्रयोगों द्वारा विश्वका एकमात्र यही शिक्षा दी थी। श्रमण होनेके पहले उनके हाथमें राज्य था। लेकिन उनके विचार उस राज्यसत्ता बलपर नहीं फैल सकते थे और न उससे विश्वशान्तिका मार्ग ही प्रशस्त हो सकता था। उन्होंने देखा कि विश्वके लिये व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी शिक्षा अनिवार्य है। उन्हें विश्वके मानव समाजको यह अनुभव कराना था कि यह जमीन, यह धन और यहाँ तक कि यह शरीर, वाणा और मन भी उसका नहीं है । वह तो मात्र इन सबका ज्ञातादष्टा है । इसलिये स्वयं उन्होंने व्यक्तिस्वातन्त्र्यको प्रतिष्ठित करनेके लिये एकमात्र अपरिग्रहवादका मार्ग अपनाया था। उनकी घोषणा थी कि अपरिग्रही होना स्वतन्त्रता-प्राप्तिकी प्रथम शर्त है। व्यक्ति स्वतन्त्र होना चाहे और वह अपने जीवनमें मूच्र्छाका त्यागकर पूर्ण स्वावलम्बनको स्वीकार न करे, वह बाह्य
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