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द्वितीय खण्ड : ५७ जिस प्रकार कार्यकी योग्यता के आधारपर निज वस्तुमें उपादानता मानी जाती है, उसी प्रकार पर वस्तु में भी निमित्तताकी योग्यता होती है। किन्तु पिताजीने उन्हें बतलाया कि परवस्तु में निमित्तता उपचारसे मानी जाती है, इसलिए उसमें वस्तुगत निमित्तताकी योग्यता होती है, यह सवाल ही नहीं उठता।
इसके कुछ समय बाद ही स्व० श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयने, जो कि भारतीय ज्ञानपीठके मंत्री थे । महाबंध संपादनका प्रस्ताव पिताजीके सामने रखा, जिसे पिताजीने सहर्ष स्वीकार कर लिया । दूसरे भागसे लेकर सातवें भागतक उन्होंने सफलतापूर्वक सम्पादन किया जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठसे हुआ है। प्रथम भागका वाचन पिताजी पं० सुमेरुचन्दजी दिवाकरको पहले ही करा चुके थे। इस प्रथम भागका संपादन पं० जी सा० ने ही किया है ।
सन् १९४९ के आसपास भारतीय ज्ञानपीठसे एक मासिक पत्र 'ज्ञानोदय' का प्रकाशन आरंभ हुआ, तब पिताजी भी उसके संपादक रहे २-३ वर्षोंके बाद जब स्व० पं० महेन्द्रकुमार ज्ञानपीठके व्यवस्थापक पद से हटे तो उन्होंने 'ज्ञानोदय' का संपादकत्व भी छोड़ दिया। उसी समय पिताजीने भी संपादक पद छोड़ दिया । सामाजिक संस्थाओंको सहयोग करना तथा पुष्ट करना पिताजीका एक प्रमुख व्यसन सा रहा है । इसके लिये वे अपना घर परिवार भी भूल जाते थे । सन् १९५० के आसपास आचार्य पू० समन्तभद्र जी महाराज, जो उस समय क्षुल्लक थे, के विशेष आग्रहपर उनके चातुर्मास के समय खुरईमें ३-४ माह रहकर गुरुकुलकी सेवामें सहयोग दिया। इस दौरान पिताजीने गुरुकुलके लिए लगभग ६०-७० हजार रुपयोंका दान समाजसे प्राप्त किया ।
यह् तो हम पहले ही लिख आए हैं कि पिताजी नौकरीको त्यागकर अपने घरपर ही कार्य करने लगे थे। उनकी भीतरसे यह इच्छा थी कि जिस महापुरुष ( पू० वर्णी जी) ने उनके जीवनको बनाया है और आपत्ति के समय उनकी सहायता की है उस महात्माके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करनेके अभिप्रायसे उनके नामपर एक साहित्य संस्था खड़ी की जाये ।
पिताजीको उसी समय इन्दौर आनेका सुअवसर प्राप्त हो गया । पिताजीने अपने इस अभिप्रायको पू० स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी के सामने रखा । पिताजी के प्रस्तावको सुनकर उन्होंने पूरा समर्थन किया । साथ ही प्रारम्भिक अवस्था में उसको आर्थिक सहायता पहुँचाने में मदद की। इस प्रकार इन्दौर में ही उनकी अध्यक्षता में श्री गणेशप्रसाद वर्णों दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला की स्थापना हुई जो अब भी गणेश वर्णी ( शोध ) संस्थानके रूपमें जानी जाती है । इस प्रकार कुछ काल इस संस्थाको पुष्ट करनेमें निकल गया ।
चूंकि पिताजी ललितपुरके पासके ही रहनेवाले थे, अतः उनकी काफी इच्छा थी कि इस प्रदेशके लिए कुछ करें। सन् १९४६ में पू० बड़े वर्णीजीका चातुर्मास ललितपुरमें सम्पन्न हुआ था । उस समय पिताजी बीना आए हुए थे । पिताजीको विचार आया कि वर्णीजीके दर्शन करते हुए बनारस जायें । इसलिए एक झोला लेकर ललितपुर गए और क्षेत्रपाल तथा वर्गीजीके दर्शन किए। पिताजीको देखकर वर्णीजीने समाजसे कहा कि "अब इन्हें जाने नहीं देना ये चले गए तो फिर लौटकर नहीं आयेंगे ।" अतः पिताजीको वहीं पर ४-५ महीना रुकना पड़ा। इस दौरान अनेक सभायें आदि करके, वर्णोजीके चातुर्मासके उपलक्ष्य में एक शिक्षा संस्था खड़ी करनी है, ऐसा वातावरण बनाया । इस उद्देश्यसे चंदा एकत्रित करना प्रारंभ किया। चार-पाँच महीने के बमसे लगभग एक लाख रूपया एकत्रित किया और अन्तमें समाजको सलाह दी कि ललितपुर में कालेजकी बहुत कमी है, इसलिए वर्णीजीके नामपर कालेजकी स्थापना की जाये। इस कार्यके लिए क्षेत्रपालके भवनोंको उपयोग में लानेकी बात भी कही। काफी ऊहापोहके बाद श्री गणेश वर्णी इंटर कॉलेजकी स्थापना की गयी ।
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