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७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीनोंको भूलना नहीं चाहिए । यहाँ तो प्रत्येक जैनको आना ही चाहिए मन्दिरमें, भले ही वह हाथ जोड़कर चला जाए।
ने. : संगठनका कोई उपाय बतलाइये, इलाज सुझाइये ।
फ. : संगठन करनेका उपाय है एक कि हम एक जगह रहें, एक गोष्ठी बनाएँ और गोष्ठीमें हम ऐसे लोगोंको लें जो चिन्तक हों, विचारक हों। उन लोगोंको भी थोड़ा बहुत जगह दें जिनका समाजमें प्रभुत्व हो या आर्थिक दृष्टिसे सम्पन्न हों। उनको लेनेसे क्या होगा एक सब तरहके विचारोंका केन्द्र बन जाएगा। आकलन हो सकेगा और वहाँ पर हमें यह निर्णय करना चाहिए पहले तो मन्दिरका निर्णय करना चाहिए कि इन सबको मन्दिर जाना होगा।
ने. : मन्दिरको भी आकर्षक बनानेकी जरूरत तो है । मन्दिर जैसे अभी हमारे सामने है ऐसे नहीं है कि मन्दिर निमंत्रण देते हों कि आओ हमारे यहाँ। उसमें आर्कषणके लिए जैसे हम कई उपाय कर सकते हैं जैसे वहाँ ऐसो पुस्तकें रखें जिनको पढ़नेकी जिज्ञासासे लोग आवें, ऐसी कथाएँ लिखी जाएँ। कथाओंके द्वारा प्रवेश होता है। तत्त्वज्ञान तो व्यक्तिका जीवन है समाजका जीवन जो है कथाएँ है, ऐसा मैं मानता हूँ।
ने. : कथाओंके माध्यमसे वह तत्त्वकी ओर जाएगा।
फू. : हाँ । तत्वकी ओर जाएगा। लड़के होंगे, बच्चे होंगे। छोटीसे छोटी किताबें तैयार हों, उनमें ऐसी हों कि जो उनमें आकर्षण पैदा करें ।
ने.: यानी मन्दिर और साहित्य इन दो पर हमारा ध्यान जाना चाहिए, तो हमारी आने वाली पीढ़ी। फ. : बिल्कुल संगठित बन सकेगा। हम विचारकोंका एक संगठन होना चाहिए ।
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