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तृतीय खण्ड : १०३
निर्भीक व्यक्तित्व •श्री सुजानमल जैन, अजमेर
सन् १९५६-५७ के आसपासकी बात है पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री श्री दि० जैन मुमुक्षु मण्डल उदयपुरके आमंत्रणपर प्रवचनार्थ जाना था। मैं तथा मेरे मित्र श्री लक्ष्मीलालजी बंडी पंडित साहबको लिवाने अजमेर आये थे। उस दिन देहलीसे आनेवाली गाड़ीके समयसे देरसे आनेके कारण मैं तथा पंडित साहब अजमेर में सेठ भागचन्दजी सोनीके यहाँ ठहरे ।
दिनभरमें अजमेरमें पंडित साहबसे कई विचारकों तथा स्थानीय विद्वानोंने चर्चा की थी। इससे पंडित साहबको उस समयकी अजमेरकी सामाजिक तथा धार्मिक स्थितिका सहज ही अवमान हो गया और उन्होंने यह जान लिया कि अजमेरको जैनधर्मके सिद्धान्तोंका जिनका प्रतिपादन पूज्य कानजी स्वामीजी द्वारा हो रहा है विरोधी है यह बात उनके मानस पर चुभ सी गई। सायंकाल भोजन करते समय शांत वातावरणमें पं० साहबसे रहा नहीं गया था उन्होंने अपने मनकी बात कहनेका यह सुअवसर है, ऐसा मानकर या उनकी निर्भीक वृत्तिसे उन्हें ललकार आनेसे उन्होंने शांत और गम्भीर वातावरणको भंग कर सेठ साहबको सम्बोधन करते हुए कहा कि सेठ साहब इस मन्दिरजी और नसियांजीका निर्माण तो आपके पूज्य पितामहने अजमेरमें शुद्धाम्नायके प्रचार-प्रसारके लिए पंडित श्री सदासुखदासजीके सदुपदेशसे ही कराया था। सेठ साहबने पंडित साहबके कथनको स्वीकारता दी। पंडित साहबने तुरन्त अपने में बैठी चुभनसे कहा कि उसी अजमेरमें आपके आपके होते हुए सोनगढ़के प्रसार प्रचारका जो शुद्धाम्नायका ही प्रसार-प्रचार है और जिसके द्वारा वर्तमानमें भारत भरमें अध्यात्मका डंका बज रहा है, उसका विरोध हो रहा है यह तो अति शर्मनाक है और उसमें आपका सहयोग है या आप मध्यस्थ होकर देख रहे हैं यह और अधिक लज्जाजनक है।
भोजन के मिष्ठ और नमकीन स्वाद के रसमें लिप्त उस समय तो मुझे ऐसा लगा कि पण्डित साहबको लौकिक व्यवहारका भी ज्ञान नहीं हैं क्या वे यह बात बादमें नहीं कह सकते या अन्य मधुर शब्दोंमें नहीं कह सकते थे जो उन्होंने भारत एक दि० समाजके महान् नेताको इस प्रकारकी भाषामें कही। लेकिन मुझे इस बातका महत्व तथा कथनकी निर्भीकताका एहसास जब हुआ जब मैंने पं० साहब द्वारा लिखित जैनतत्त्व. मीमांसा के प्रथम संस्करणके प्राक्कथनको पढ़ा। जिस समय भारतके करीब-करीब सारे विद्वान् सोनगढ़में पूज्य स्वामीजी द्वारा, जिनोक्त और आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थोंके सिद्धान्तोंके प्रतिपादन और प्रसार प्रचारका विरोधकर रहे थे या डगमगा रहे थे या चुप्पीसाधे थे ऐसे समयमें पण्डित साहबसे उन सिद्धान्तोंको समझा न्याय तर्क आगम और नयकी कसौटी पर कसकर देखा और उन्हें यथावत् पाया तो यह चिन्ता किये बिना कि सारा विद्वत्समाज विरोधमें है उन्होंने इस सत्यका विश्लेषण एक पुस्तकाकारमें लिखकर इटावाकी विद्वतपरिषदकी ज्ञानगोष्ठी में उसका वाचन किया जो इतिहासकी एक अनुपम घटना थी इस गोष्ठीमें अनेक विद्वानों तथा ज्ञानियोंने भाग ही नहीं लिया वरन पण्डितजी के वाचन पर विभिन्न विद्वानोंने अपनी पूर्व मान्यताओंके आधार पर भिन्न २ प्रकार के तर्कोको रखा परन्तु पं० साहबने निर्भीकतासे सभी उठाये गये तर्कोका आगमके आधार से समाधान किया और पुरानी सिद्धान्त विरुद्ध मान्यताओंका खंडन कर कुन्दकुन्दाचार्यों द्वारा प्रतिपादित मान्यताओंका प्रतिपादन किया जिसका ही प्रतिफल है कि आज भारतके कोने-कोनेसे गाँव-गाँवसे अध्यात्मकी गूंज आ रही है तब मुझे अपनी उस समयकी भूलका एहसास हुआ कि यह विद्वान् कोरा पण्डित नहीं लेकिन जैनागमका ज्ञाता और उस पर अटल प्रतीति होने का कारण जिसके रग-रगमें निर्भीकता
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