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१०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
निमित्त कर्मबन्ध भी बना चला आ रहा है। जैसे बीजसे वृक्ष और वृक्षसे बीजकी संतति अनादि है, उसी प्रकार जीव और कर्मबन्धकी परम्परा भी अनादि है।
किन्तु जैसे विवक्षित वृक्ष और उसके बीजका अभाव हो जानेपर उनकी परम्परा नहीं चलती, उसी प्रकार संसारी जीवके अज्ञान और रागद्वेषके साथ बन्धक अभाव हो जानेपर, उस जीवके संसारकी परम्परा भी नहीं चलतो । इसीका नाम मोक्ष है ।
इस प्रकार इतने विश्लेषणसे हम जानते हैं कि स्वयं स्वीकारकी गयी परालम्बन प्रधानवृत्तिके कारण ही इस संसारी जीवके अपने जीवन में अज्ञान, असंयम और राग-द्वेष आदि दोषोंका संचार होता है। और इस कारण यह जीव पर-पदार्थोंसे अपनी आत्माको युक्त करता है; पर पदार्थ नहीं ।
इसलिये अपने में व्यक्ति स्वातन्त्र्यकी प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिये जहाँ अपनी बुद्धिमें मूल स्वभावके अवलम्बन पूर्वक उनकी भावना द्वारा अज्ञान और रागद्वेषादि पर-संयोगी भावोंसे मुक्त होना आवश्यक है वहीं उनके उपजीवी परपदार्थों का क्रमशः ज्ञापन करते हए शरीरातिरिक्त बुद्धि पूर्वक स्वीकार किये गये, उन सब पदार्थोसे वियुक्त होना भी आवश्यक है। यह नहीं हो सकता कि बुद्धिपूर्वक संयोग भी बनाये रखा जाय
और मुक्तिका मार्ग भी प्रशस्त हो जाये । संयोग का कारण अज्ञान और रागद्वेष है । इसलिये इन दोषोंका परिहार करनेके लिये संयोगके प्रति अनास्थापूर्वक, उनका त्याग करना आवश्यक है ।
तात्पर्य यह है कि जैसे स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब और धनादि पर-पदार्थोंको बुद्धिपूर्वक छोड़कर एकाकी हुआ जा सकता है, वैसे इस पर्यायमें रहनेकी आयुका अन्त हुए बिना शरीरसे मुक्त होना सम्भा नहीं है । शरीरसे मूर्छा छोड़ी जाती है और वस्त्रादि बाह्य पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है। अतः आत्माराधनाका इच्छुक प्राणी शरीरमें ममत्वरूप मूर्छाका त्याग करता है और वस्त्रप्रमुख पर-पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक त्याग करता है।
इतना अवश्य है कि जब तक अपनी पुरुषार्थहीनताके कारण परावलम्बनके प्रतीक-स्वरूप बाह्य वस्तुओंका एकदेश त्याग करता है. तबतक उसे गहस्थ कहते हैं। इसका जीवन जलमें रहते भिन्न कमलके समान होता है। कक्षा-भेदसे इसके अनेक भेद हैं। जिस गहस्थके अन्तमें एक लंगोट मात्र परिग्रह रह जाता है, उसे ऐलक कहते हैं। यह मुनिका छोटा भाई है। मुनि के साथ वन ही इसका जीवन है । वह तप और शरीरकी स्थितिका साधन जानकर मात्र आहार ग्रहण करनेके लिये गाँवमें गृहस्थके घर जाता है। किन्तु जब वह परपदार्थोंसे पूरी तरह विरक्त होकर पूर्ण स्वावलम्बनके प्रतीकस्वरूप गुरुसाक्षी पूर्वक श्रमणदीक्षाको स्वीकार कर ध्यान और अध्ययनके साथ आत्माराधनाको ही अपना प्रधान लक्ष्य बना लेता है, तब वह पूर्णरूपसे श्रमण धर्मका अधिकारी माना जाता है। यह जैनधर्मका मूलरूप है । गृहस्थधर्म इसका अपवाद है। इसके प्रयोजन विशेषके कारण आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन भेद भले ही किये गये हों; पर हैं वे सब श्रमण (साधु) ही।
"श्रमण" शब्द "समण" शब्दका संस्कृत रूप है। इससे तीन अर्थ फलित होते हैं-श्रम. सम और शम । इससे हम जानते हैं कि श्रमण वह है जो श्रमणोचित क्रियाओंको दूसरेकी सहायताके बिना स्वयं सम्पन्न करता है। श्रमण (समण) वह है जो प्राणीमात्रमें समता परिणामों से युक्त होकर अपना जीवन यापन करता है । तथा श्रमण (शमण) वह है जो रागद्वेषका परिहार करके आत्माराधनामें तत्पर रहता है।
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