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१०४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
समा गई है वह कैसे भोजनके मिष्ठ स्वादमें सिद्धान्तोंके विरोधको अनदेखी करता । उन्हें तो भोजनके मिष्ठान में भी सिद्धान्तों के विरोधकी कडुवाहटका स्वाद आ रहा था यही कारण था कि उन्होंने न भोजनका समय देखा, न मिष्ठानका स्वाद और न भारत के सर्व मान्यधी और श्रीमान् नेताको देखा और न आतिथ्यको, लेकिन उन्होंने उन सबसे अधिक देखा जैन सिद्धान्तोंको, जो सबसे सर्वोत्कृष्ट थे तथा प्राण थे । इस तरह के निर्भीक वृत्तिवाले विद्वान् देखनेको कदाचित् ही मिलते हैं ।
हम में भी जिनोक्त और आगमोक्त सिद्धान्तोंके प्रति इसी प्रकार की प्रगाढ़ श्रद्धा जागृत हो और उनका निर्भीकतासे प्रतिपादन कर सके या उनके विरोधका निर्भीकतासे मुँहतोड़ प्रत्युत्तर दे सके तो ही हमारा पण्डित साहब के प्रति वास्तविक अभिनन्दन है ।
इस निर्भीक वृत्तिके प्रति मेरा हार्दिक वन्दन ।
स्वाभिमानी व्यक्तित्व
● श्री राजमल पवैया, भोपाल
परम आदरणीय सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री से मेरा परोक्ष परिचय तो बहुत पुराना है । प्रत्यक्ष परिचय तो सन् १९५० में हुआ । दिसम्बर सन् १९३३ में जब अ० भा० दि० जैन परिषद्का अधिवेशन जनता प्रसादजी कलरैयाकी अध्यक्षतामें हुआ, तब अमरावती के स्वनामधन्य प्रो० हीरालालजीने धवलाके प्रकाशनकी योजना समाजके सामने रखी, उस योजनाको मूर्तरूप दिया विदिशा के श्रीमंत सेट लक्ष्मीचन्दजीने । उस समय अधिवेशनमें जो हर्ष उल्लास छाया वह आज भी चित्रपटकी भाँति आँखों में झूलता है । मा० पण्डितजीने अनेकों ग्रन्थोंका संपादन तो किया ही, कई स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी भी रचना की । वर्ण, जाति और धर्म" लिखकर आपने रूढ़िवादियोंपर भयंकर प्रहार करके आगमका अर्थ समाजके सामने सरल और सुबोध भाषामें प्रमाण सहित रखा, इस ग्रन्थसे पोंगापंथियोंकी चूलें हिल गईं, आज तक वे इसका आगम सम्मत उत्तर नहीं दे सके ।
आध्यात्मिक संत पूज्य कानजी स्वामीसे आपके बड़े मधुर सम्बन्ध रहे, सिद्धान्तों पर स्वामीजी आपसे सदैव चर्चा करते रहते थे और परामर्श भी करते थे । आपकी समयसार कलशकी हिन्दी टीका पर तो स्वामीजी इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने इसपर कई बार प्रवचन किये ।
आप निरन्तर साहित्य साधना में लीन रहते हैं, आज भी कई महत्वपूर्ण ग्रन्थोंकी टीका कर रहे हैं । शारीरिक स्वास्थ्य की घोर प्रतिकूलतामें भी आप जैन साहित्यकी सेवामें अपना जीवन समर्पित किये हुए हैं ।
पूज्य पण्डितजी समाजमें चोटी के महान् विद्वान्, सिद्धान्तोंके ज्ञाता निर्भीक वक्ता । आपने अपना संपूर्ण जीवन स्वाभिमानपूर्वक स्वावलम्बनसे बिताया है । प्रतिकूल परिस्थितियोंमें भी आपकी दृढ़ता एवं स्मित हास्य दर्शनीय होता है । स्पष्ट राय देनेमें आप कभी हिचकते नहीं हैं । शंकाओंके समाधान में आपका कोई जवाब नहीं है । जैन धर्मके सिद्धान्तों की रक्षाका भाव आपमें कूटकूट कर भरा है ।
धर्म प्रचारके लिए आप इस ८३ वर्षकी वृद्धावस्थामें भी युवकोंकी तरह जागरूक रहते हैं । आप शतायुसे भी अधिक जीवित रहते हुए जैन साहित्यकी सेवा करते रहें, यही मेरी हार्दिक भावना है ।
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