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तृतीय खण्ड : १०१ बीसवीं सदीका चिरयुवा मनस्वी पुष्पदन्त-भूतबलि •प्रो० डॉ० राजाराम जैन, आरा - बहु आयामी व्यक्तित्त्वके विषयमें अधिक लिख पाना प्रायः कठिन ही होता है । जिसने जीर्ण-शीर्ण एवं सर्वथा अप्रकाशित शौरसेनी जैनागमोंके उद्धारका आजीवन व्रत ले लिया हो, महान क्रान्तिकारी जैनधर्ममें व्याप्त आगमविरुद्ध परम्पराओंके विरोधमें निर्भीकतापूर्वक लिखते रहनेका संकल्प किया हो, उन्ननीषु अभावग्रस्त छात्रोंके मनोबलको बढ़ाकर उन्हें प्रगतिशील बनाए रखनेका दृढ़ व्रत लिया हो, अपने महान् प्रेरक गुरुतुल्य पंडित गणेशप्रसाद वर्णीकी जैन-शोध सम्बन्धी अभिलाषाओंको साकार करनेका प्रण किया हो, जैन दर्शन एवं कर्मसिद्धान्तके मर्मको स्पष्ट करनेके लिए जिसने विविध प्राच्यजैनाचार्योंके ववाङ्मयके अध्ययनमें सारा जीवन न्यौछावर कर दिया हो, देशकी आजादीके संघर्षपूर्ण वर्षोंमें जिसने व्यक्तिगत क्षति एवं जेलयात्राके कष्टोंकी भी परवाह न की हो, समाज एवं राष्ट्रको व्यक्ति एवं परिवारसे निरन्तर सर्वोपरि माना हो, उस आदर्श साधकके विषयमें कुछ भी निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण लिखनेके लिए उसी जैसी बहु आयामी साधना एवं प्रौढ़ लेखनीकी आवश्यकता है।
पूज्य पंडितजीने अपने जीवनमें विश्राम करना नहीं सीखा । शौरसेनी जैनागमोंके अभूतपूर्व सम्पादनके अतिरिक्त प्रमेयरत्नमाला, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि जैसे ग्रन्थरत्नोंका पाण्डित्यपूर्ण सम्पादन एवं समीक्षात्मक अध्ययन, जैनतत्त्वमीमांसा, खानिया तत्त्वचर्चा. वर्णजाति एवं धर्म जैसे उत्कृष्ट कोटिके में विचारोत्तेजक गम्भीर ग्रन्थोंका लेखन, भारतीय सामाजिक एवं दार्शनिक जगतके लिए गौरवका विषय है। : पत्र-सम्पादन कलाके क्षेत्रमें भी पंडितजीके कृतित्त्वका उदाहरण नहीं मिलता। भारतीय ज्ञानपीठ काशीने जुलाई १९४९ में एक उच्चस्तरीय शोध-पत्रिका "ज्ञानोदय" (मासिक) का प्रकाशन किया था जिसके सम्पादक मण्डलमें पण्डित फूलचन्द्रजी भी थे।
अपने आदर्शोके प्रति अक्खड़ एवं फक्कड़ स्वभाव वाले महास्वाभिमानी इस मनीषीने अपने आदर्शों सिद्धान्तोंके मूल्यपर कभी समझौता नहीं किया । भले ही वह टूटता रहा किन्तु झुका नहीं । अकेला बना रहा किन्तु दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ता रहा । ऐसे सपूत किसी समाजको बड़े ही पुण्य-भाग्यसे मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका जीवन पुष्पदन्त भूतबलिकी जिनवाणीके प्रति सुरक्षाको चिन्ता समन्तभद्रकी सर्वोदय-भावना, उमास्वामी एवं पूज्यपादके पाण्डित्य, अकलंक एवं विद्यानन्दकी दार्शनिकता तथा अभिमान मेरा पुष्पदन्तकी मनस्विता एवं अक्खड़पनके तत्वोंसे मिलकर निर्मित हुआ है । आगम-विरुद्ध परम्पराओं एवं सामाजिक कुरीतियोंके प्रति उनकी विद्रोही विचारधारासे कुछ लोगोंके त्यौवर लाल-पीले भी होते रहे हैं किन्तु इससे उनकी विचार-पद्धति अप्रभावित ही रही।
वस्तुतः यह सम्मान श्री० पं० फलचन्द्रजीका ही नहीं, इस माध्यमसे प्राचीन आचार्यों एवं उनकी प्राच्यवाणीका भी सम्मान-अभिनन्दन है, जो सरस्वतीके समस्त आराधकों एवं शिक्षा जगत्के लिए गौरवका विषय है । उन्हें मेरे शतशः प्रणाम ।
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