________________
९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बुन्देलखण्डको माटोसे गढ़ा गया एक और ऐकलव्य .श्री नीरज जैन, सतना
धुन रे धुनियां अपनी धुन,
और काऊ की एक नैं सुन । बुन्देलखण्डी व्यक्तिकी यही अस्मिता है। यह उसके व्यक्तित्वकी विशेषता नहीं, उस व्यक्तित्वकी आधारशिला है। एकदम स्थिर, अकम्प और अटूट । सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी नखसे शिख तक बुन्देलखण्डी हैं । उनकी पक्की धुन और अजेय इच्छा-शक्तिका आभास देनेवाली अनेक घटनाएँ उनके जीवनवृत्तमें बिखरी दिखाई देती हैं।
मोरैनाके विद्यालयका सत्तर साल पूर्वका वही बुन्देलखण्डी विद्यार्थी आज सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीके नामसे हमारे अभिनन्दनका पात्र बना हुआ, अपने उस गुरुका यश-प्रसार कर रहा है । जिनके मुखसे यद्यपि दो अक्षर भी सुननेका कभी उसे अवसर नहीं मिला, पर प्रेरणाके स्रोत वे गुरु उसके लिए सतत वन्दनीय हैं। स्वनामधन्य गुरुणाम् गुरु, स्याहादवारिधि, वादिगजकेसरी, न्याय-वाचस्पति पंडित गोपालदासजी बरैया हो वह आदर्श गुरु थे।
इस बीसवीं शताब्दीमें ईस्वी सन्के साथ-साथ वार्धक्यकी ओर अग्रसर पण्डितजी जीवन-वाटिकाके चौरासी पतझर देख चुके हैं। आम जैन विद्वान्की तरह आजीविकाके संघर्ष, अनिश्चय, अभाव और आदरअनादरके आरोह-अवरोह पण्डितजीने भी खूब भोगे हैं। परन्तु उन सबके बीच खुरदरी खादीका सादा परिधान धारण किये, सरल खड़ी बोलीके बीच सरल बुन्देलखण्डीकी मिठाससे पगी नर्म और तर्कपूर्ण वाणीके बलपर, अपनी बेलाग और सशक्त लेखनीको पतवार बनाकर, बुन्देलखण्डका यह अभिनव-ऐकलव्य अपनी साधनाके पथपर निरन्तर बढ़ता ही रहा।
"जैनतत्त्वमीमांसा" के लेखकको अब समाजमें किसी प्रकारके परिचयकी आवश्यकता नहीं है। उनके गहन-ज्ञानकी झाँकी प्रस्तुत करनेके लिए यह एक कृति ही पर्याप्त मानी जा सकती है। परन्तु समाजके लिये पण्डितजीकी प्रेरणा और परामर्श, उस विषयमें उनका चिन्तन और अनुभव, ये सब हमें प्राप्त होते हैं उनकी एक दूसरी पुस्तक "वर्ण, जाति और धर्म" में। इस कृतिके द्वारा पण्डितजीने जैन समाजमें व्याप्त वर्णभेद और छुआछूत जैसी आत्मघाती और सिद्धान्त-विरुद्ध प्रवृत्तियोंके बारेमें जैन आचार्योंकी समत्वसे भरी उदारतापूर्ण विचारधाराका अच्छा प्रसार किया है । कहना न होगा कि जैनाचार्योंके उसी सामाजिक औदार्यने
। परम्पराको विरोधी परिस्थितियोंमें भी न केवल जीवित रखा वरन् उत्कर्ष पर पहुँचाया है और वही व्यावहारिक उदारता आजके युगमें भी हमारे अस्तित्वके लिये “साँस लेनेकी तरह" जरूरी हो गई है। ग्रन्थ-प्रशस्तियों, अभिलेखों और मतिलेखोंके आधारपर कतिपय जातियोंके इतिहासका अन्वेषण और अध्ययन तथा अपने प्रवचनों-भाषणोंमें दहेज-प्रथाका विरोध पण्डितजीके सामाजिक चिन्तनकी सहज-स्फूर्त देन है।
पण्डित फुलचन्द्रजी अपनी उपलब्धियोंसे स्वतः गौरवान्वित हैं। आज उनका अभिनन्दन करके हम अपने आपको गौरवान्वित कर पा रहे है. यह हमारा सौभाग्य है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org