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तृतीय खण्ड : ९५
जहाँ तक सामाजिक विषयोंका सम्बन्ध है, पंडितजीके विचार उदार, अग्रगामी और क्रान्तिकारी हैं। अन्तर्जातीय और विजातीय विवाह, जैन मन्दिरोंमें हरिजनोंको प्रवेशका अधिकार, अस्पृश्यता निवारण, सामाजिक बहिष्कार, गजरथोत्सव और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, मृत्युभोज, विधवा विवाह आदि विषयों के संबन्ध में पण्डितजीकी मान्यताओं में मानवीय पहलू ही मुखर हुआ है । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पण्डितजीके सभी विचार सुपाच्य नहीं है, सुग्राह्य भी नहीं हैं। यहाँ विनम्रतापूर्वक मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मैंने स्वयं पण्डितजीके कई विचारोंका विरोध किया है। मसलन जैनमन्दिरोंमें हरिजनोंके प्रवेश सम्बन्धी अधिकार पर केवल मानवीय पहलसे ही विचार नहीं किया जा सकता। निश्चय ही जैन समाजमें हरिजनोंकी कोई समस्या नहीं है, क्योंकि जैन समाजमें कोई हरिजन है ही नहीं। जैनमन्दिरोंमें कहीं भी हरिजनों या जैनेतरोंका प्रवेश निषिद्ध नहीं है, वशर्ते वे जैन परम्पराके नियमोंके अनुसार प्रवेश करें। किन्तु उन्हें जैनमन्दिरोंमें प्रवेश करनेका काननी अधिकार तो नहीं दिया जा सकता । कानूनी अधिकार देनेका अर्थ है-जैन मन्दिरों पर उनके स्वामित्वका अधिकार, जैन परम्पराके उन्मूलनकी स्वीकृति ।
पंडितजी वर्षों तक राष्ट्रीय धारासे जुड़े रहे । स्वतन्त्रता संग्रामके सम्मानित सेनानी रहे और इसके लिये वे जेल भी गये।
कुल मिलाकर उनका व्यक्तित्व बहुमुखी रहा है। वे बहुश्रुत विचारक मनीषी है, क्रान्तिकारी विचार धाराके अग्रणी नेता हैं, उनका हृदय मानवीय स्पन्दनसे परिपूर्ण है। कानजी सम्प्रदायको सैद्धान्तिक आधार देने, विद्वानोंका परिकर जमा करने और प्रचारात्मक पक्षको रचनात्मक रूप देनेमें उनकी प्रमुख भूमिका रही है । उनकी साहित्य-साधना जो गुणात्मक और संख्यात्मक प्रसून प्रसूत किये हैं उस पर हमें गर्व है।
जैन सिद्धान्तके पारगामी विद्वान् • डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर
वर्तमान जैन मनीषियोंमें पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका स्थान सर्वोपरि है । वे सिद्धान्त ग्रन्थोंके पारगामी विद्वान् हैं । षट् खण्डागम. गोम्मटसार, राजवात्तिक जैसे महान् ग्रन्थोंका पूरा मर्म उनके मस्तिष्कमें भरा पड़ा है । उनको सैद्धान्तिक चर्चायें सुनने योग्य है। विगत ४ दशकसे वे जैन समाजमें अत्यधिक सम्मानित विद्वान् माने जाते हैं । जो भी एक बार उनके सम्पर्कमें आ जाता है वह उन्हींका बन जाता है।
जयपुर में भी वे जब कभी आते ही रहते हैं। मुझे यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि समाज उनको सुनने में पूरी रुचि रखता है । जयपुरमें सन् १९६३ में खानियोंमें जो चर्चा हुई थी और जो खानिया चर्चाके नामसे प्रसिद्ध है, वह पंडितजीके जीवनको सबसे महत्वपूर्ण घटना है। मुझे स्मरण है कि रात्रिको वे किस प्रकार ग्रन्थोंमेंसे उद्धरण छाँटते थे और उनके निशान लगाते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी गजब की थी उस समय वे कहते थे कि अमुक ग्रन्थकी अमक पंक्ति देखो शायद उसमें यही लिखा हुआ है। उस समय उनके सैद्धान्तिक ज्ञानको देखकर बड़ा आश्चर्य होता था।
पंडितजीमें आज भी काम करनेकी उतनी ही लगन एवं समर्पणकी भावना है। उनके जीवनका अधिकांश भाग उच्च ग्रन्थों के अध्यापन, अध्ययन, शास्त्र प्रवचन, ग्रन्थ सम्पादन, लेखन एवं सम्पादनमें व्यतीत हुआ है। आज भी वृद्ध होनेपर भी वे उसी तरह समर्पित हैं । समाजके वे वरिष्ठतम विद्वान हैं जिनका जितना अभिनन्दन किया जावे वही कम है। वे विद्वानोंके जनक है। समाजके बहुतसे विद्वान् उनसे किसी न किसी रूपमें उपकृत है। वे विद्वानोंका पूरा ध्यान रखते हैं। ऐसे विद्वानका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है यह उनकी सेवाओंके प्रति आभार व्यक्त करना है। मैं उसका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ तथा उनके शतायु एवं यशस्वी जीवनकी कामना करता हूँ।
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