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तृतीय खण्ड : ९१ जब कभी किसी भी धार्मिक कार्यक्रममें उन्हें स्मरण किया जाता है, सदैव अपना सहयोग प्रदान करनेमें तत्पर रहते हैं। समाजको उनके प्रवचनों और धार्मिक एवं सामाजिक समस्याओंके समाधानका लाभ अभी भी प्राप्त हो रहा है।
मुझे यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य और हर्ष है कि पंडितजी इन्दौरके स्वरूपचन्द हुकमचन्द दि० जैन पारमार्थिक संस्थाओंके अन्तर्गत छात्रावास एवं संस्कृत महाविद्यालयके (लगभग ६६ वर्ष पूर्व) विद्यार्थी भी रहे हैं। वे किसी संस्थासे बँधे न रहकर बहुत समयसे स्वतन्त्र ग्रन्थ संपादन कार्य करते आ रहे हैं। पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णोकी स्मतिमें उन्होंने वर्णी शोध संस्थानके संचालनका दायित्व ले रखा है, जिसे आत्म निर्भर करनेका उनका संकल्प है ।
मेरी मंगल कामना है कि पंडितजी स्वस्थ रहते हए चिरायु हों। एवं सभी मानव मात्रको उनसे ज्ञान वृद्धि मिले।
श्रमण-संस्कृतिके उन्नायक •श्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर
श्रद्धेय पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वर्तमान समयके जैनदर्शनके मूर्धन्य विद्वान् है । उनकी सरलता, सौम्यता, सादगी आत्मीयभाव सिद्धान्तके प्रति दृढ़ता आदि गुण बरबस मनुष्यको अपनी ओर खींच लेते हैं ।
श्रद्धेय पंडितजीके श्रमण संस्कृतिके उन्नयन निमित्त जो सतत् प्रयत्न एवं पुरुषार्थ किया है, उसका हमारे वणिक समाज पर चाहे कोई प्रभाव न हुआ हो पर मैं यह कह सकता हूँ कि इतना महान् कार्य यदि विदेशमें कोई विद्वान करता तो निश्चय ही वहाँकी जनता एवं शासन उसे राष्ट्रीय सम्मानसे अवश्य विभूषित करता । जैनधर्मावलम्बियोंको गर्व होना चाहिये कि पंडित फूलचन्द्रजीके अहनिश प्रयत्नोंका ही यह परिणाम है कि धवला-जयधवला, महाधवल जैसे महान् आर्ष ग्रन्थको उन्होंने आजकी भाषामें जनताके समक्ष रख दिया। पंडितजीने अपने लम्बे जीवनमें अनेक तत्त्व ग्रन्थोंपर टीका एवं भाषानुवाद लिखकर जो वर्तमान पीढ़ी पर उपकार किया है वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। अपने सरल जीवनके साथ जटिल तत्वों पर भी अपने विचार निर्भीकता पूर्वक प्रकट करनेको अपूर्व क्षमता पंडितजीमें है। उन्हें अपने जीवनमें अनेकों संघर्षोंका सामना करना पड़ा । वे सदैव राष्ट्रवादी रहे उनपर भी राष्ट्रपिता बापूका असर हुआ, आजादीके आन्दोलनमें सक्रिय रूपसे भाग लिया, खादीको अपनाया पर अपने धर्म एवं सिद्धान्त पर दृढ़ रहे। युग प्रवर्तक बाबा गणेश प्रसादजी वर्णीको उन्होंने विधि केन्द्रोंकी स्थापना एवं उनके संचालनमें पूर्ण सहयोग प्रदान करते हुए अपने आपको समर्पित कर दिया।
वैचारिक स्वतन्त्रता एवं आगमके प्रति अटूट आस्थाका एक ही उदाहरण पर्याप्त है। सोनगढ़में आदरणीय कानजी स्वामीने जब तक जैन सिद्धान्त एवं तत्त्वके प्रति अगाध श्रद्धासे कार्य किया, बावजूद नाना विरोधोंके वे उनके साथ रहें, पर जब उन्होंने देखा कि शनैः-शनैः व्यक्ति पूजाका पाखंड वहाँ प्रवेश कर रहा है तो तत्काल आम जनताके बीच साहस एवं धैर्यके साथ अपनी असहमति प्रकट की तथा उस स्थानको सदैवके लिये त्याग कर दिया ।
सौभाग्यसे श्रीमंत सेठ राजकूमारसिंहजी कासलीवाल के आग्रह और निवेदनको स्वीकार कर आजकल पण्डितजी उदासीन आश्रम तुकोगंज इंदौरमें विराज रहे हैं। यहाँ भी उनका सतत अध्ययन, स्वाध्याय लेखन
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